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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
है न परितोष ही मानता है । वह तो अपने आप को पाषाण की तरह स्थिर रखता है, ध्यान में निमग्न रहता है ।
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आचार्य सोमदेव ने अपने ग्रन्थ में ध्यान का जो विश्लेषण किया है, वह जैन परम्परा के चले आते एतद् विषयक क्रम के अनुरूप है। उन्होंने ध्यान में सहयोग करने वाले और विघ्न करने वाले कारणों को बताते हुए ध्यानयोगियों को सावधान किया है।
आचार्य सोमदेव एक बड़े कुशल, सफल, शब्दशिल्पी थे । उन्होंने लालित्यपूर्ण संस्कृत में अपने विवेच्य विषयों का जो निरूपण किया है, वह बड़ा ही सुन्दर और आकर्षक है।
ध्यानसाधना जैसे अध्यात्मयोग संबंधी विषय को उन्होंने सुन्दर काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत कर निःसन्देह आकर्षक बना दिया है, किन्तु यह कहना भी असगंत नहीं होगा कि उन्होंने जैनयोग के संदर्भ में कोई नवीन मौलिक चिन्तन प्रस्तुत नहीं किया ।
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खण्ड : षष्ठ
वही, 8.179
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