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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
करें। यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से शरीर का कोई महत्त्व नहीं है, परन्तु संसार सागर को पार करने के लिए यह साधना में तुम्बिका के समान व्यक्ति का सहायक है। उसी दृष्टि से शरीर की रक्षा करनी चाहिए |
जो मनुष्य धैर्यरहित है और कायरता युक्त है उसके लिए कवच धारण करना भी निरर्थक है। जिस खेत में धान सूख चुका हो उसकी बाड़ करना निष्प्रयोज्य है, उसी प्रकार जो पुरुष ध्यान में यथार्थतः अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकता उसके लिए बाह्य विधि-विधान निरर्थक हैं । जैसे वायुरहित स्थान में दीपक निश्चल रूप में प्रकाश देता रहता है वैसे ही साधक का मन जब आन्तरिक और बाह्य अज्ञान रूपी पवन से अविचलित रहता है, तत्त्वचिंतन में सोत्साह लगा रहता है तब उसका ध्यान सबीज ध्यान कहा जाता है।
जब साधक की चैतसिक प्रवृत्तियाँ निर्विचार या संक्रमण रहित हो जाती हैं, साधक जब आत्मा की शुद्धावस्था में ही निमग्न रहता है, तो उसका वह ध्यान निर्बीज ध्यान कहा जाता है ।
खण्ड : षष्ठ
इस चित्त में अनन्त सामर्थ्य है किन्तु यह पारद के समान चंचल है । आयुर्वेदिक पद्धति द्वारा जैसे पारद मूर्च्छित, मारित और शुद्ध होकर सिद्ध हो जाता है, रसायन का रूप ले लेता है, उसी प्रकार चित्त आध्यात्मिक ज्ञान रूपी अग्नि में मूर्च्छित, मारित और शुद्ध होकर स्थिर हो जाता है। जैसे शुद्ध होकर रसायन बना हुआ पारद अद्भुत वैशिष्ट्य प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार जिस योगी का चित्त स्थिर हो जाता है वह चैतसिक शुद्धि सम्पन्न योगी सब कुछ प्राप्त कर लेता है।
यदि यह मन रूपी हंस समस्त मनोव्यापार से विरहित होकर अचंचल बन जाय, आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिरता पा ले तो वह सर्वज्ञानी, सर्वदर्शी, निर्मल आत्मा के रूप में परिणत हो जाता है । समस्त संसार रूपी मानसरोवर उसका अधिष्ठान बन जाता है । वह ध्येय वस्तु में एकाग्र होकर सतत सक्रिय रहता है । वह ज्ञेय, उपादेय आदि भावों के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है और जरा भी विभ्रान्त नहीं होता । 1 32
महाकवि ने ध्यान की महिमा का आख्यान करते हुए लिखा है कि रत्नों का
वही, 8. 159 169
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