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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आत्मस्वरूप के आस्वाद में रति-अनुरक्ति होने लगती है, तत्पश्चात् आकाश के समान निर्मल उपयोग हो जाने के कारण आत्मा में वर्णनातीत दिव्य उत्तम शान्त, आध्यात्मिक आनन्दमयी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जब ऐसा होता है तो फिर संसारी जीव ध्यान साधना रूपी रसायन विधि द्वारा क्यों नहीं सिद्धि प्राप्त कर सकता ?123
इस श्लोक में बड़ी जटिलता से आयुर्वेद सम्मत रसायन विधि के आधार पर ध्यान द्वारा अध्यात्मसिद्धि पाने का मार्ग प्रशस्त किया गया है। आयुर्वेद में लोहे को स्वर्ण बनाने की एक विशेष प्रक्रिया है। विभिन्न वनौषधियों के प्रयोग द्वारा अनेक बार अग्नि में गलाकर, संस्कारित कर सिद्ध किया जाता है। उसे स्वर्णसिद्धि योग कहा जाता है। लोहा सोने के रूप में बदल जाता है। कर्मावरणयुक्त आत्मा और तदाश्रित शरीर को लोहे के रूप में उपस्थित किया गया है। ध्यान का अग्नि के रूपक से निरूपण किया गया है। सम्यक् ज्ञान सम्यक् दर्शनादि औषधियों के रूप में परिकल्पित हैं। इन सब के योग से लोहमयी आत्मा स्वर्णमयी बन जाती है।
चित्त के चिन्तन का लक्ष्य कभी लोकत्रय के आकार का बन जाता है अर्थात् वह तीनों लोकों के पदार्थों पर टिकता है। कभी लोकत्रय में विद्यमान एक द्रव्य को, कभी एक द्रव्य की पर्याय को लक्षित कर एकाग्र होता है। नासिका के अग्र भाग पर नेत्रों की स्थिति रहती है, सूक्ष्म मन वहाँ टिकता है। ध्यानयोगी उन अवस्थाओं को पार कर अपनी आत्मा को ध्यान का लक्ष्य बनाता है। वह जन्म-मरण के, आवागमन के बीज को नष्ट कर डालता है, अपने आप के साथ ऐक्य स्थापित करने वाला ध्यानयोगी समस्त प्राणियों के लिए हर्षप्रद होता है।124
अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त चिन्तानिरोध ध्यान का एक रूप है। शुभाशुभ के रूप में वह ध्यान दो प्रकार का है। फिर उसके आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के रूप में चार भेद हैं। फिर चारों के चार-चार भेदों को मिलाकर यह सोलह प्रकार का है। यह ध्यान अपने - अपने स्वरूप के आधार पर तिर्यंच, नरक, स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला होता है।125
123. 124. 125.
वही, गा. 12 . वही, गा. 14 वही, गा. 15
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