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________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श इच्छानुसार विहरण करने में, जिनकी इच्छाएँ नष्ट हो गई हैं वे आध्यात्मिक योग रूपी अद्वितीय ऐश्वर्य के धनी योगीश्वर साधना में अध्येताओं और साधकों का तेज, ओजस्विता बढ़ायें | आत्मा रूपी गगन में अत्यन्त वेगपूर्वक भ्रमण करने से, आत्मस्थ रूप में चिन्तनशील रहने से जिनके शरीर उपेक्षित हैं, योगोद्योग-ध्यान योग के प्रभाव से समुत्पन्न अमृत रस के आस्वाद के कारण जिनके मन रूपी राजहंस का प्रचरण मन्द हो गया है अर्थात् जिनका मन अध्यात्म के अमृत में सराबोर होने के कारण स्थिर हो गया है, जिसने इधर-उधर भटकना बन्द कर दिया है, पाँचों इन्द्रियों के विषयों से ममत्व को नष्ट कर डालने के कारण शून्य बने शरीर रूपी घर पर जिनका प्रभुत्व है, वे ममताविहीन योगीश्वर तुम्हारे कर्म रूपी ताप को उपशान्त करें। 121 ध्यानयोगी महापुरुषों को यद्यपि योग - विभूतियों या लब्धियों के रूप में अनेकानेक विशेषताएँ प्राप्त होती हैं किन्तु वे तो सर्वथा निष्क्रिय होते हैं। उन्हें उनकी जरा भी आकांक्षा नहीं होती। उनको जो आध्यात्मिक वैभव प्राप्त होता है । उसी में वे सदा परितुष्ट होते हैं। उनके प्रभाव, सान्निध्य और प्रेरणा से साधकों को निस्सन्देह बड़ा बल प्राप्त होता है। मन को एकाग्र करने हेतु एक विशेष क्रम का, जिसे अध्यात्मयोगी साध लेते हैं, वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है " जिन्होंने अपने मन को ब्रह्म ग्रन्थि से निकाल कर नाभिकमल में अवतीर्ण किया है, तदनन्तर बहुत काल तक हृदय कमल में अवस्थान कर, फिर रसना के अति परिचित मुख में, तालु रन्ध्र में फिर चक्षु, भ्रू, ललाट, मस्तक आदि में निर्विघ्नतया परिवर्तित किया है, जन-जन के पूज्य वे ध्यानयोगी तुम्हें उत्कृष्ट अध्यात्म लक्ष्मी प्राप्त कराये | 122 121. 122. खण्ड: षष्ठ - ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ में बीच-बीच में प्राणायाम आदि का भी संकेत किया है । आगे उन्होंने अत्यन्त गंभीर रूपकात्मक शैली में ध्यान की विशिष्ट फलवत्ता का उल्लेख करते हुए लिखा है अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह त्याग रूपी ईंधन से जलायी गई ध्यान रूपी अग्नि में सम्यक्दर्शन रूपी दिव्य औषधि के प्रभाव से आत्म रस योगमार्ग ( आचार्य सोमदेव) गा. 9-10 वही, गा. 11 Jain Education International 64 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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