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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
जीव द्वारा विरक्त भाव से अन्तरात्म भाव में जाते हुए परमात्म भाव को अधिगत करने की इस साधनामय यात्रा की भावना को हृदय में उतारना तथा उससे अपने भावों को अनुप्राणित करना शिवतत्त्व या आत्मभावना है। इससे जीव जो अपने आपको अशिव- अकल्याण, संक्लेश आदि से उद्विग्न मानता है वह शिवतत्त्व की दिशा में, जहाँ इनका सर्वथा अभाव है, गतिशील होता है।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव ये तीनों देव पौराणिक साहित्य में सर्जन, रक्षण और प्रलय के साथ जुड़े हुए हैं। शिव प्रलयंकर देव के रूप में स्वीकार किये गये हैं । जैन दृष्टि से ध्यान समस्त कर्मों के प्रलय या नाश का विधायक है । इस दृष्टि से वह भी प्रलयंकर सिद्ध होता है, क्योंकि कर्मों का प्रलय होने से ही परमात्म परम लक्ष्य सिद्ध होता है।
साक्षात्कार
गरुड़ तत्त्व :
पौराणिक आदि मतवादियों द्वारा स्वीकृत गरुड़तत्त्व को आचार्य शुभचन्द्र ने आत्मा की परम तेजस्विता, शक्तिमत्ता एवं ऊर्जस्विता के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया है। वह ध्यान जिसके साथ आत्मा का परम प्रबल पराक्रम जुड़ा नहीं होता, विघ्नों के आने पर विचलित हो सकता है। स्वीकृत ध्यान कदापि विचलित और व्याहत न हो इसलिए उसमें विपुल अत्मशक्ति का संयोजन परमावश्यक है। गरुड़ की सर्वातिशायिनी त्वरिततम गतिमयता को परिलक्षित कर आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान में अविश्रान्त गति, अबाधित त्वरा, असामान्यतीव्रता, सर्वथा अस्खलितता लाने हेतु इस तत्त्व का अपनी दृष्टि से प्रतिपादन किया । जिस गद्यात्मक शैली में आचार्य शुभचन्द्र
वर्णन किया है वह समासबहुल, गंभीर और आलंकारिकता से सुसज्जित है । ग्रंथकार के विवेचन के अनुसार गरुड़ का मुख प्रतीकात्मक रूप में गरुड़ पक्षी के सदृश है । मुख 'के अतिरिक्त समस्त अंग मानव के अंगों के समान हैं। साथ ही साथ उसके दोनों पावों से घुटनों तक लटकते हुए दो पंख हैं। अपनी चोंच में उसने दो सर्पों को ले रखा है। उसके घुटनों से ऊपर नाभिपर्यन्त जल तत्त्व, उसके ऊपर हृदय पर्यन्त अग्नितत्त्व, उसके ऊपर मुख में पवन तत्त्व परिकल्पित है। आकाश तत्त्व में गरुड़ की कल्पना कर ध्यान-योगी ध्यान करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि इससे ध्यान में होने वाले समस्त विघ्न मिट जाते हैं। ग्रंथकार ने इन सभी तत्त्वों का विस्तृत वर्णन किया है । सर्प साधना
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खण्ड: षष्ठ
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