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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम में होने वाले विघ्नों के द्योतक हैं। सांसारिक विषय सों की ज्यों डसने वाले हैं। गरुड़ ने दो सौ के फनों को चोंच में डाल रखा है ताकि वे अपना विष न उगल सकें। दोनों सों में से एक को गरुड़ ने अपने उदर पर, दूसरे को अपने पृष्ठ पर लटका रखा है ताकि वे परस्पर मिलकर जोर लगाकर उसकी चोंच से छूटने में सक्षम न हो सकें। इस अभिव्यक्ति में आत्मा के तेजोमय एवं परम पराक्रममय शक्तितत्त्व का संसूचन है जिसमें जागृत होने पर विषयों के नाग डस पाने में समर्थ नहीं हो पाते।111 यह परिकल्पना बड़ी ही जटिल एवं दुरूह प्रतीत होती है। किन्तु ध्यानयोगी की आन्तरिक शक्ति को उद्दीप्त करने के लिए प्रेरणा प्रदान करने की एक विलक्षण क्षमता इसमें सन्निहित है। कामतत्त्व : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं। धर्म और मोक्ष का सम्बन्ध है। उसी तरह अर्थ और काम का सम्बन्ध है। सभी सांसारिक उपलब्धियों का लक्ष्य काम की परिपूर्ति है। काम-रूप साध्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अर्थ का अर्जन करता है, अर्थार्जन में वह विपुल श्रम, अत्यधिक क्लेश, तिरस्कार, अवहेलना, अपमान आदि सब कुछ सहता है। इस संसार में मानव की जो अविश्रान्त दौड़ दृष्टिगोचर होती है उसके पीछे काम, काम्य भोग एवं यौवन सुख की उद्दाम लिप्सा ही है। जब लिप्सा होती है तब भावना में तीव्रता, उद्यम और अध्यवसाय की गति में प्रचुर वेगशीलता आ जाती है। यद्यपि उस त्वरा और गतिमत्ता का लक्ष्य अपवित्र और संसारवर्धक है, भवाटवी में रमण करवाने वाला है किन्तु त्वरा में जो शक्ति है, उसका महत्त्व तो है ही। यदि उस कामोन्मुख वेग को उदर से निष्कासित कर योग के साथ जोड़ दिया जाय तो वह वेगगत शक्ति पावन बनकर योग को प्रबल बना सकती है। इसी अभिप्राय से संभव है ग्रंथकार ने ध्यान के संदर्भ में काम तत्त्व की परिकल्पना की हो। विवेचन के अन्तर्गत रूपक शैली में ग्रंथकार ने उन सभी उपकरणों, साधनों को वर्णित किया है जो कामात्मक व्यापार में परिलक्षित होते हैं। किन्तु उनका आन्तरिक मोड़, विशुद्ध निर्मल, निर्लेप, उज्ज्वल, ब्रह्मतत्त्व या आत्मतत्त्व की ओर है। भौतिक जगत्, काव्य जगत् में काम को धनुर्धर माना गया 111. वही, गरुड़तत्त्व, पृ. 173-176 ~~~~~~~~~~~~~~~ 55 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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