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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम Recidedia कहा है- “अयमात्मा शिवः सिद्धः कीर्तितः शुक्लध्यानात्। तथाऽयमात्मा वैनतेयो गरुड़ः कीर्तितः ध्यानबलात् तथा स्मरःकन्दर्पः कीर्तितः। किं विशिष्ट:? अणिमादीत्यादि......।" इन तीनों तत्त्वों का आत्मा के साथ ध्यान की दृष्टि से ग्रन्थकार ने गंभीर गद्यात्मक शैली में विवेचन किया है। शिव शब्द अनेक अर्थों को लिये हुए है। वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव-महादेवरूप देवत्रय में एक है। वह कल्याण, श्रेयस् और प्रशान्त भाव का सूचक है। गरुड़ वैदिक परम्परा के पौराणिक साहित्य में भगवान विष्णु का वाहन माना गया है। वह पक्षिराज है। तीव्रतम गति या गमन शक्ति से वह पूर्ण है। काम तत्त्व कमनीयता, रमणीयता या सुन्दरता का प्रतीक है। आचार्य शुभचन्द्र ने इन तीनों तत्त्वों के वैशिष्ट्य को आत्मा की असीम शक्तिमत्ता से जोड़ते हुए ध्यान के साथ समायोजित किया है। आत्मशुद्धि तथा अन्त:जागरण की पावन यात्रा में जहाँ से भी जो प्रेरक संबल प्राप्त हो उसे ग्रहण करने में प्रखर ज्ञानी और चिन्तक अन्यथा भाव नहीं मानते। शिवतत्त्व : आत्मा जब संसारावस्था में होती है तब वह जीवात्मा संज्ञा से अभिहित की जाती है। जब इसे आन्तरिक तथा बाह्य रूप में क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से अनुकूल सामग्री उपलब्ध होती है तब यह रत्नत्रय सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र के अतिशय को प्राप्त करती है। उनकी आराधना में संलग्न होने पर उसमें अनन्य भाव का उदय होता है। वह अपने अतिरिक्त अन्य द्वारा अपना श्रेयस् नहीं मानती। उसके आधार पर जब आत्मा का साधनामय उपक्रम अग्रसर होता है तो क्रमश: मोह का अभाव होता जाता है। धर्मध्यान की आराधना के उपरान्त जब उसमें विशुद्ध आत्मस्वरूप मूलक ऊर्जा का अभ्युदय होता है तब शुक्ल ध्यान का आविर्भाव होता है। शुक्ल ध्यान की अव्याप्ति, संप्राप्ति या सिद्धि का परिणाम यह होता है कि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म जो आत्मगुणों का घात करते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इससे आत्मा में अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप शक्ति चतुष्टय का प्राकट्य होता है। आत्मा परमात्म भाव को प्राप्त कर लेती है। इसी को शिवतत्त्व कहा जाता है।110 110. वही, शिवतत्त्व, पृ. 171-172 ~~~~~~~~~~~~~~v 53 rrrrrrrrrrrrr~~~~~~~~ FORE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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