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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
का विशेष रूप से विकास हुआ। तंत्रसाधना में प्रेरणा, ऊर्जा, शक्ति आदि के विकास के लिए विविध विषयों को प्रतीकों के रूप में ग्रहण किया गया है।
109.
आचार्य शुभचन्द्र जैन विद्या के अतिरिक्त अन्यान्य विधाओं, दर्शनों और साधना पद्धतियों से भली भाँति अभिज्ञ थे। उन्होंने 'ज्ञानार्णव' के 21 वें सर्ग में त्रितत्त्वशिवतत्त्व गरुड़तत्त्व, काम तत्त्व के रूप में साधना के सन्दर्भ में विशिष्ट दृष्टि को प्रस्तुत किया है। उन्होंने आत्मा को ही समस्त शक्तियों का पुंज मानते हुए त्रितत्त्व के विश्लेषण
पूर्व आत्मा के अपरिसीम सामर्थ्य की विवेचना की है। उन्होंने लिखा है - आत्मा स्वयं ही साक्षात् रूप में गुण रूपी रत्नों से परिपूर्ण सागर है। आत्मा में ही सर्वज्ञत्व, सर्वदर्शित्व, रूप वैशिष्ट्य है । वस्तुतः वही हितमय या कल्याणमय है । वही परमेष्ठी पद में संस्थित है, वह निरंजन है, किसी भी प्रकार के कालुष्य से रहित है, शुद्ध नय से आत्मा का यही स्वरूप है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानकर यह प्राणी कर्मों की प्रवञ्चना में पड़कर इन्द्रियों के भोगों में सुख मानता है। यह उसकी बहुत बड़ी भूल है | जो सुख राग - विजेता संयमी साधक की प्रशम मंद कषाय रूप आत्मविशुद्धि में है, उसका अनन्तवाँ भाग भी देवेन्द्र को प्राप्त नहीं है । अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य आदि गुणों के आधार पर महापुरुषों ने अपनी आत्मा में ही परमात्मा की गवेषणा करने का प्रयत्न किया है। आत्मा अनन्त पराक्रम संवलित है । समस्त वस्तुओं को अपने ज्ञानात्मक उद्योग से प्रकाशित करता है। ध्यानशक्ति के प्रभाव से वह तीनों लोकों को भी चलायमान कर सकता है, इस आत्मा की शक्ति इतनी विशाल है कि महान् योगियों के लिए भी वह अगोचर है । आत्मा परमोच्च ध्यानप्रसूत समाधि में जब लीन होती है तो वह क्षण मात्र में ध्यान और ज्ञान की दिव्य ज्योति के रूप में अव्याहत प्रकाश करती है । जिस समय विशुद्धि ध्यान के प्रभाव से वह कर्म रूपी ईंधन को भस्मसात कर देती है उस समय परमात्म भाव का स्वयं ही साक्षात्कार हो जाता है। आत्मा के अशेष गुणों का ध्यान से ही प्राकट्य होता है तथा ध्यान से ही अनादि काल से संचित कर्मसंतति विनष्ट होती है। आत्मा ही शिव, गरुड़ और काम कहा गया है । यह अणिमा, महिमा आदि गुणरूप रत्नों का उदधि है । 109
'ज्ञानार्णव' की तत्त्वत्रय प्रकाशिनी टीका में इस श्लोक का विवेचन करते हुए
वही, 21.1-9
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खण्ड : षष्ठ
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