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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
समुच्छिन्नक्रिय शुक्ल ध्यान है। तदनन्तर वीतराग प्रभु के अयोग गुणस्थान में अवशिष्ट रही तेरह कर्मप्रकृतियाँ भी विलय पा लेती हैं। अयोगकेवली गुणस्थान में केवली प्रभु निर्मल, शांत, निष्कलंक, निरामय एवं आवागमन रूप संसार के दुर्निवार बन्धजनित कष्टों से रहित सिद्ध, सुप्रसिद्ध, निष्पन्न, कर्ममलविवर्जित, निरंजन, अक्रिय, अशरीर, शुद्ध और निर्विकल्प हो जाते हैं। वहाँ यथाख्यात चारित्र-चारित्र की परिपूर्णता घटित होती है। वहाँ वे मन-वचन-काय के योगों से रहित होते हैं। इसलिए उनकी अयोगी संज्ञा होती है। वे निवृत्त हैं इसलिए केवल हैं, अपने आत्मस्वरूप को वे सिद्ध कर लेते हैं। इसलिए साधित आत्मा हैं। स्वभाव स्वरूप और परमेष्ठी हैं। वे चतुर्दश गुणस्थान में अ, इ, उ, ऋ, लु इन ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने काल तक ठहरते हैं। फिर कर्मबन्ध से सर्वथा रहित शुद्धात्म-शुद्ध स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करते हैं। वैसा कर एक समय में ही कर्मावरोध रहित लोक के अग्र भाग में विराजित होते हैं। वहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव है। इसलिए उससे आगे ऊर्ध्वगमन अनुमेय नहीं है। क्योंकि धर्मद्रव्य गतिस्वभावी है, गमन करने में हेतुभूत है। इसी प्रकार अधर्मद्रव्य पदार्थों की स्थिति करने में हेतु है। ये दोनों लोकव्यापी हैं इसलिए पदार्थों की गति, स्थिति लोक में ही होती है। सिद्धात्मा लोकाग्र भाग में स्वभावोत्पन्न अनन्त गुणों के ऐश्वर्य युक्त अवस्थित रहते हैं। वे अव्याबाध, अतीन्द्रिय, नैसर्गिक सुख युक्त होते हैं, जो वर्णनातीत है।108
ग्रन्थकार द्वारा शुक्ल ध्यान का अनितम पर्यवसान सिद्धत्व प्राप्ति के रूप में जिन प्रेरक, उद्बोधक शब्दों में व्यक्त किया गया है वह उनके कवित्व प्रतिभा प्रसूत वैशिष्ट्य का द्योतक है। त्रितत्त्व :
भारतवर्ष में साधना की दृष्टि से नाना प्रयोग हुए हैं। उनमें विधि, पद्धति आदि के सम्बन्ध में विविधता, भिन्नता होते हुए भी तद्विषयक अभ्यास में सभी में एकाग्रता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि ध्यान के बिना किसी भी प्रकार की साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं होती। भारतवर्ष में तन्त्रात्मक साधना का भी विशेष रूप से प्रचलन रहा है। काश्मीर में शैव तन्त्र, वैष्णव तंत्र, शक्ति तंत्र आदि 108. वही, 42.48-64 ~~~~~~~~~~~~~~ 51 ~~~~~~
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