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________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ है। कहा है- धर्म ध्यान को अतिक्रान्त कर, सिद्ध कर आत्मा की आत्यन्तिक शुद्धिसमाश्रित, वीर्य-आत्मबल का धनी, संयमी साधक अत्यन्त निर्मल शुक्ल ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ करता है। जो निष्क्रिय-क्रियारहित, करुणातीत, इन्द्रियविवर्जित तथा ध्यान की धारणा से भी रहित होता है। “मैं इसका ध्यान करूँ।" ऐसा मनोभाव भी जहाँ नहीं रहता, जिसमें चित्त अन्त:मुख होता है, आत्मस्वभाव के सम्मुख होता है उसे शुक्ल ध्यान कहा जाता है। जो वज्रऋषभ नाराच संहनन से युक्त है, पूर्व, एकादशांग और चतुर्दश पूर्व का जिसको ज्ञान है, जिसकी चेष्टाओं में पवित्रता है, जो शुद्ध चारित्र से समायुक्त है वह संयमी साधक ध्यान चतुष्टय में सर्वोत्तम शुक्ल ध्यान को धारण करने में, उसका अभ्यास करने में सक्षम होता है। जब साधक का कषाय रूपी मल क्षीण या उपशांत हो जाता है, तब उसका मन निर्मल या शुक्ल हो जाता है तब उसके शुक्ल ध्यान सधता है। प्राक्कालीन आचार्यों ने ऐसा निरूपण किया है।101 शुक्ल ध्यान के भेदों का वर्णन करते हुए ज्ञानार्णवकार लिखते हैं- प्रारम्भ के दो शुक्ल ध्यानों में प्रथम शुक्ल ध्यान वितर्क और वीचार पृथक्त्व रहित होता है। अत एव उसे पृथक्त्व वितर्क वीचार कहा गया है। दूसरा शुक्ल ध्यान सवितर्क-वितर्क सहित अवीचार-वीचार रहित है। वह एकत्व पद से लांछित-चिह्नित है। संयमी साधकों ने उसे एकत्ववितर्कावीचार कहा है। वह ध्यान अत्यन्त निर्मल होता है। तीसरा शुक्ल ध्यान सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति है। चौथा शुक्लध्यान समुच्छिन्नक्रियव्युपरतक्रिया संज्ञक है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति में उपयोग की क्रिया नहीं रहती। किन्तु काय की क्रिया विद्यमान रहती है। यह काय संबंधी क्रिया मन्द होते-होते जब सूक्ष्म रह जाती है तब यह तीसरा शुक्ल ध्यान सधता है। इसी कारण इसको यह सनंज्ञा दी गई है। चौथा ध्यान तब सधता है जब काय की क्रिया व्युपरत या नष्ट हो जाती है, सर्वथा मिट जाती है।102 वितर्क और वीचार को स्पष्ट करते हुए कहा है- जिस ध्यान में पृथक्-पृथक् रूप से वितर्क वैचारिक संक्रमण होता है अर्थात् जिसमें पृथक्-पृथक् रूप में श्रुतज्ञान परिवर्तित होता रहता है वह सवितर्क सवीचार पृथक्त्व ध्यान है। जिसमें वितर्क वैचारिक 101. वही, 42.3-6 102. वही, 42.8-11 ~~~~~~~~~~~~~~~ 48 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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