SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम संक्रमण नहीं होता और जो एकरूप में ही स्थित होता है वह सवितर्क अवीचार रूप एकत्व ध्यान है। नानात्व या अनेकत्व को पृथक्त्व कहा जाता है। श्रुतज्ञान को वितर्क कहा जाता है, अर्थ व्यञ्जन और योगों के संक्रमण को वीचार कहा जाता है। एक अर्थ से दूसरे अर्थ की प्राप्ति होना अर्थसंक्रमण है। एक व्यञ्जन से दूसरे व्यञ्जन को प्राप्त होकर स्थिर होना व्यञ्जन संक्रान्ति है। एक योग से दूसरे योग में जाना योग संक्रान्ति है। विशुद्ध ध्यान के सामर्थ्य से जिसका मोहनीय कर्म विनष्ट हो गया है, ऐसे अध्यात्मयोगी साधक के ये फलित होते हैं।103 पृथक्त्व मूलक ध्यान द्वारा जिस साधक ने अपने चित्त को कषायों से विनिर्मुक्त और शांत बना लिया है, जो कर्म रूप तृणसमूह के वन को दग्ध करने हेतु अग्नि के सदृश समुद्यत है, ऐसे महान् साधक एकत्वध्यानयोगी में एकत्वमूलक ध्यान के सिद्ध करने का पराक्रम प्रस्फुटित होता है।104 यह पृथक्त्व रहित सवितर्क, एकत्वमूलक ध्यान अत्यन्त निर्मल होता है। अपरिश्रान्त होता हुआ योगी उस ध्यान में एक द्रव्य, एक परमाणु या एक पर्याय का एक योग से चिन्तन करता है। इसलिए इसे एकत्व कहा जाता है। सिद्ध हुई इस ध्यान रूपी अग्नि से घाती कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। वह योगी इस ध्यानाग्नि की ज्वालाओं द्वारा दर्शनावरण, ज्ञानावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म को विनष्ट कर देता है।105 इस दूसरे ध्यान के सिद्ध हो जाने पर साधक आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर आत्यन्तिक, परम शुद्धि प्राप्त कर लेता है। उसे केवलज्ञान और केवलदर्शन अधिगत हो जाते हैं। ये दोनों अलब्धपूर्व हैं। केवलज्ञान सर्वकाल व्यापी है। सर्वज्ञत्व प्राप्त भगवान अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य आदि विभूतियों से विभूषित हो जाते हैं। इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, धरणेन्द्र, मानव और देव उनके चरणों में नमन करते हैं। वे शील, ऐश्वर्य आदि से युक्त भगवान भूमण्डल पर विचरण करते हैं। वैसा करते हुए वे जीवों के द्रव्यमल - भावमल रूप मिथ्यात्व का मूलोच्छेद करते 103. वही, 42. 13-17 104. वही, 42. 23-24 105. ज्ञानार्णव 42.26-29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy