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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आलम्बन लेकर ध्यान करता है वह रागी होकर क्रूर कर्माश्रित बन जाता है। अशुभ कर्मों से बँध जाता है। 7 संयमी साधकों को कौतुक के रूप में भी स्वप्न में भी कभी अशुभ ध्यान का अभ्यास नहीं करना चाहिए। क्योंकि वे सन्मार्ग की हानि के हेतुभूत हैं। अशुभ ध्यान के कारण सन्मार्ग से च्युत-पतित हुए चित्त को पुन: सैकड़ों वर्षों में भी कोई सन्मार्ग पर लाने में सक्षम नहीं हो पाता।
रूपातीत ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने साधकों को प्रेरित करते हुए लिखा है- आकाश के आकार की ज्यों अमूर्त, अनाकार-पुद्गलात्मक आकार से रहित, निष्पन्न-किसी भी प्रकार की हीनाधिकता से वर्जित, शान्त, क्षोभ रहित, अच्युत-अपने स्वरूप में स्थित, चरम शरीर से किञ्चित्-न्यून लोकाकाश के अग्रभाग में अपने सघन प्रदेशों में स्थित शिवीभूत - कल्याणस्वरूप अनामय-रोगादि से सर्वथा विवर्जित, पुरुषाकार को प्राप्त होकर भी अमूर्त परमात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान है। साधक उसका अभ्यास करे।99 धर्म ध्यान का फल :
ध्यान की फल-निष्पत्ति की ओर संकेत करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है, जिस प्रकार निष्कम्प-कम्पन या चलन रहित, दीपक सघन अंधकार को शीघ्र ही बुझा डालता है, उसी प्रकार संयमी साधक द्वारा किया गया सुनिश्चल-विचलन रहित ध्यान कर्मकलंक के समूह का शीघ्र ही नाश कर डालता है।
धर्मध्यान का सफल अभ्यासी साधक देह आदि परिग्रहों का अतिक्रमण कर आत्मा में अवस्थित होता हुआ एकाग्र बनता है। वह इन्द्रियों और मन के संयोग से दूर हो जाता है। मन को केवल आत्म-स्वरूप में ही स्थिर बनाये रखता है।100
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शुक्ल ध्यान:
42वें सर्ग में ग्रन्थकार ने शुक्ल ध्यान के स्वरूप आदि का विवेचन किया
97. वही, 40-1 98. वही, 40.6-7 99. वही, 40.22-23 100. वही, 41. 4, 11 ~~~~~~~~~~~~~~~
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