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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
श्रुतज्ञान अत्यन्त गंभीर, परम पावन, पुरातन, पूर्वापर-विरोध आदि दोष से विवर्जित है। वह द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नय तथा सद्भूत असद्भूत व्यवहार आदि उपनय से युक्त होने के कारण गहन है। गणधरादि द्वारा स्तवनीय है, विचित्र-अपूर्व तथा अनेक प्रकार के अर्थों से परिपूर्ण है। समस्त लोक को प्रदर्शित करने के लिए वह नेत्र के तुल्य है। वह अनेक पदों का विन्यास है।87
निष्कर्ष के रूप में उन्होंने कहा है कि जिस ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को पुरस्कृत कर पदार्थों का सम्यक् प्रकार से चिन्तन किया जाता है, उत्तम योगियों ने उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहा है।88 अपाय विचय :
___ 34वें सर्ग में अपायविचय धर्म ध्यान का विवेचन किया गया है। कहा है - सांसारिक प्राणी श्री सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त न कर संसाररूपी अरण्य में चिरकाल से नष्ट होते हुए जन्म और मृत्यु को प्राप्त करते हुए भटक रहे हैं। कर्मनाश के हेतुभूत और उपाय रूप रत्नत्रय को उन्होंने प्राप्त नहीं किया। यह रंक, दीन, प्राणी जिनेश्वर देवरूपी जहाज को प्राप्त न कर संसार रूप समुद्र में निरन्तर मज्जन-उनमज्जन करते हैं, आवागमन का दुःख भोगते हैं, अपायविचय ध्यान के चिन्तन का यह रूप है।89
साधक पुन: यह चिन्तन करे कि इस संसार में एक ओर तो कर्मों की सेना है और एक तरफ मैं एकाकी हूँ। मुझे संकटकारी शत्रु समूह में अप्रमत्त सावधान होकर रहना चाहिए। जिस प्रकार अन्य धातुओं से मिश्रित स्वर्ण अग्नि से परितप्त-परिशोधित किया जाता है, उसी तरह मैं प्रबल ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों के समूह को नष्ट कर आत्मा का परिशोधन करूंगा। मोक्ष की दृष्टि से मेरे लिए यह उपादेय है। अथवा, ज्ञान दर्शन चारित्र युक्त आत्मा ही उपादेय है। मैं कौन हूँ ? मेरे कर्मों का आस्रव क्यों होता है ? बन्ध क्यों होता है ? किस कारण से निर्जरा होती है ? मोक्ष क्या है ? तथा उसके प्राप्त होने पर आत्मा का कैसा स्वरूप होता है ? संसार का प्रतिपक्षी 87. ज्ञानार्णव 33.8-12 88. वही, 33.22 89. वही, 34.2-3 ~~~~~~~~~~~~~~~ 42 ~~~~~~~~~~~~~~
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