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________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ प्राणायाम की साधना से निष्पन्न विशेषताओं की चर्चा करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो पुरुष प्राणायाम का अवलम्बन करते हैं उनका चित्त स्थिर हो जाता है। चित्त की स्थिरता होने से विशिष्ट ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। उससे योगी जगत् में समस्त वृत्तान्त को प्रत्यक्षवत् जानने लगता है। इसके अनन्तर ग्रन्थकार ने प्राणायाम की और भी सूक्ष्म विद्याओं का पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि तत्त्व के आधार पर वर्णन किया है। भौतिक देह में ये तत्त्व विद्यमान हैं, जिनके साथ विशेष रूप से श्वासोच्छ्वास के समायोजन का विशेष क्रम प्रतिपादित किया है। प्रत्याहार का स्वरूप : प्रत्याहार शब्द प्रत्याह्रियन्ते इन्द्रियाणि विषयेभ्यो येन स प्रत्याहारः। जिसके द्वारा इन्द्रियाँ विषयों से प्रत्याहृत कर, खींचकर वशमें की जाती हैं उसे प्रत्याहार कहा जाता है। इन्द्रियों के साथ-साथ मन पर भी यह घटित होता है। योगांगों में यम से प्राणायाम तक चारों अंग योग के बाह्य अंग कहे जाते हैं। आगे के चार आन्तरित अंग कहे गये हैं। क्योंकि उनका इन्द्रिय और मन के जैसे तथा आत्माभ्युदय से संबंध है। आचार्य शुभचन्द्र ने पूर्व योगांग क्रम के अनुसार प्राणायाम के पश्चात् प्रत्याहार का वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है- प्रशान्त बुद्धि युक्त साधक अपनी इन्द्रियों और मन को उनके विषयों से खींच कर जहाँ-जहाँ उसकी इच्छा हो वहाँ धारण करे वह प्रत्याहार है। जिसकी परिग्रह आदि से आसक्ति मिट गयी है, जिसका अन्त:करण संवर में अनुरक्त है, कच्छप की ज्यों जिसने अपने आपको पापास्रव से संवृत कर रखा है वैसा संयमी साधक राग-द्वेष रहित समभाव युक्त होकर ध्यानतंत्र में, ध्यानाभ्यास में स्थिर होने हेतु प्रत्याहार स्वीकार करता है। जितेन्द्रिय साधक विषयों से अपनी इन्द्रियों को पृथक् करे, फिर इन्द्रियों से मन को पृथक् करे और मन को निराकुल बनाकर अपने ललाट पर निश्चलतापूर्वक टिकाये, धारण करे, यह प्रत्याहार की एक विधि है। प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों के विषयों से खींचा गया, पृथक् किया गया मन समस्त उपाधियों रागादि रूप विकल्पों से रहित हो जाता है, समभाव को अधिगत कर वह आत्मलीन बन जाता है।9 78. वही, 29.14 79. वही, 30.1.5 38 - ~ ~ - ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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