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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जहाँ उपयोगी हो सके उसी रूप में स्वीकार्य है। आचार्य शुभचन्द्र ने इस विषय को भी अपने विवेच्य विषयों में स्वीकार किया है।
उन्होंने प्रारम्भ में प्राणायाम की विशेषता की चर्चा करते हुए कहा है कि जिन संयमी पुरुषों ने सत् सिद्धांतों का भली-भाँति निर्णय किया है, जिन्होंने धर्म के वास्तविक तत्त्व को निश्चित कर स्वीकार किया है, उन्होंने अन्तरात्मा की स्थिरता और ध्यान की सिद्धि के लिए प्राणायाम को प्रशंसनीय या प्रशस्त कहा है। 75
उन्होंने आगे पूरक, कुंभक और रेचक के रूप में प्राणायाम के सुपरिचित तीन भेदों का उल्लेख किया है। उन्होंने कहा है कि तालुवे के छिद्र से अथवा बारह अंगुल पर्यंत से वायु को खींचकर उसे अपनी इच्छानुसार अपने शरीर में पूरण करना वायुविज्ञानवेत्ताओं द्वारा पूरक पवन कहा गया है । उस पूरक पवन को स्थिर कर नाभिकमल में जैसे घट को भरा जाय वैसे रोकना, स्थिर करना, अन्य स्थान की ओर न जाने देना कुम्भक है। अपने कोष्ठस्थित पवन को अत्यन्त यत्न के साथ धीरे-धीरे बाहर निकालने की क्रिया पवनागम-प्राणवायु विषयक शास्त्र के विद्वानों द्वारा रेचक कही गयी है। नाभिस्कंध से निःसृत तथा हृदय कमल में से होकर तालुरन्ध्र में विश्रान्त ( स्थित ) पवन को परमेश्वर प्राणवायु का स्वामी कहा गया है। 76
75. ज्ञानार्णव 29-1
76. वही, 29.3-7
77. वही, 29.10-12
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ग्रन्थकार ने प्राणायाम से सम्बद्ध सूक्ष्म किया का वर्णन करते हुए कहा है प्राणायाम का अभ्यास करने वाला योगी तन्द्रारहित या प्रमादशून्य होकर यत्नपूर्वक अपने मन को वायु के साथ धीरे-धीरे हृदयकमल की कर्णिका में प्रविष्ट कराकर वहाँ नियन्त्रित करे | वैसा कर लेने पर मन में विकल्प नहीं उठते और विषयों की आशातृष्णा भी विनष्ट हो जाती है । अन्तरंग में विशिष्ट ज्ञान की ज्योति संस्फुरित होती है । इस प्राणवायु विषयक साधना का फल मन का वशीकरण है। इस प्रकार जो योगी मन को वश में कर लेता है, अध्यात्म भाव से अनुप्राणित रहता है, उसकी अविद्या क्षणभर में नष्ट हो जाती है। इन्द्रियाँ मद रहित वन जाती हैं और कषाय क्षीण हो जाते हैं। 77
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