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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
निकाल दिये गये हों, सागर की ज्यों वह अगाध गंभीरता लिये हो, मेरु पर्वत के सदृश उसमें निश्चलता हो, जिसके अंग - प्रत्यंग तथा मन किसी भी प्रकार से चलित-विचलित न हों, जिसके वेग संकल्प शांत हों, समस्त भ्रम विनष्ट हों, वह उतना निश्चल बना हो कि समीपस्थ मेधावी जन भी ऐसा भम्र करने लगे कि क्या यह पाषाण मूर्ति है ? यह चित्रांकित प्रतिमा है ? यह आसनजय की सिद्धि का रूप है। प्राणायाम:
'ज्ञानार्णव' के 29वें सर्ग में प्राणायाम का विवेचन किया गया है। प्राणायाम अष्टांग योग का चौथा अंग है। प्राणायाम शब्द प्राण और आयाम इन दो शब्दों से बना है। 'प्राणानाम् आयाम: प्राणायाम:'। प्राण का अर्थ वायु है। संस्कृत में प्राण शब्द नित्य बहुवचन में प्रयुक्त होता है। उच्छ्वास, नि:श्वास के रूप में इसका प्रतिक्षण संचरण होता है। यही दैहिक जीवन का लक्षण है। योग में उच्छ्वास-नि:श्वास के नियमन का विशेष रूप से विधान किया गया है। महर्षि पतंजलि ने उसका लक्षण बताते हुए संक्षेप में विवेचन किया है। हठयोग में इस पर विशेष रूप से चर्चा हुई है।
हठयोग-प्रदीपिका' में प्राणायाम के महत्त्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि प्राणवायु के चलित, चंचल होने पर मन भी चंचल हो जाता है तथा प्राणवायु के निश्चल-सुस्थिर होने पर मन में भी स्थिरता आ जाती है। प्राणवायु को स्थिर कर लेने वाला योगी स्थाणु की ज्यों अचल हो जाता है। अतएव प्राणवायु के निरोध का अभ्यास करना चाहिए। शरीर में जब तक प्राणवायु है तभी तक उसे जीवित कहा जाता है। शरीर से प्राणवायु के निष्क्रान्त हो जाने पर मृत कहा जाता है।3
‘घेरण्ड संहिता' में कहा गया है कि जो योगी श्वास को-उच्छ्वास-नि:श्वास को जीत लेता है, उसका मन उसी प्रकार से रजोगुण से विरत हो जाता है जैसे धौंकनी से प्रज्वलित अग्नि में तपाने से लोहे का मैल जल जाता है। 4
जैनाचार्यों ने अपने द्वारा रचित योग विषयक ग्रन्थों में प्राणायाम के संदर्भ में अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार चर्चा की है। ध्यान-साधना में वह जितना, जैसा,
73. हठयोगप्रदीपिका, 2.2-3 74. घेरण्ड संहिता पृ. 123 ~~~~~~~~~~~~~~~
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