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________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श कारुण्य : जो लोग दैन्य, शोक, त्रस, रोगादि जनित पीड़ा से दुःखित हैं, घात एवं बन्धन से अवरुद्ध हैं, जो अपने जीवन की इच्छा रखते हुए ऐसी दैन्यपूर्ण याचना कर रहे हैं, 'हमें बचाओ' जो भूख, प्यास, श्रम आदि से पीड़ित हैं, शैत्य, औष्ण्य आदि से दुःखित हैं, निर्दय पुरुषों द्वारा उत्पीड़ित हैं, मरण भय से आर्त्त हैं ऐसे दुःखी प्राणियों को देखकर उनके दुःख को दूर करने के उपाय करने का चिन्तन कारुण्य भावना है। 59 प्रमोद भावना : जो पुरुष तपश्चरण, शास्त्राध्ययन और यम-नियम आदि साधना में उद्यमयुक्त हैं, ज्ञान ही जिनके चक्षु हैं, जो विशिष्ट ज्ञानी हैं, इन्द्रिय, मन, कषाय के विजेता हैं, आत्म तत्त्व का अभ्यास करने वालों में निपुण हैं, तीनों लोकों को चमत्कृत करने वाले चारित्र में जिनकी आत्मा अधिष्ठित है, ऐसे पुरुषों के गुणों में प्रमोद - हर्ष का अनुभव करना मुदिता या प्रमोद भावना है। 60 माध्यस्थ्य भावना : जो प्राणी क्रोधी, क्रूरकर्मी, मधु-मद्य-मांससेवी, परस्त्रीलुब्ध, अत्यन्त पापपूर्ण आचारयुक्त, देव, शास्त्र एवं गुरुजन के निंदक हैं, आत्म प्रशंसक एवं नास्तिक हैं ऐसे जनों के प्रति राग द्वेष रहित, उपेक्षा भाव रखना, उदासीन रहना माध्यस्थ्य भावना है। 61 59. वही, 27.8.10 60. वही, 27-11-12 61. वही, 27.13-14 खण्ड: षष्ठ ~~ इन भावनाओं की महनीयता का वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है- ये चारों भावनायें साधक जनों के लिए आनन्द रूपी अमृत के सदृश संप्रवाह करने वाली चन्द्र - ज्योत्स्ना के समान है। इनसे रागादि का विपुल क्लेश विध्वस्त हो जाता है तथा ये लोकाग्र - पथ-लोक के अग्र भाग में विद्यमान मोक्षस्थान को प्रकाशित करने में दीपक के सदृश हैं। इन भावनाओं में जो योगी रमण करता है वह इसी लोक में आत्मा से आविर्भूत होने वाले अतिशय युक्त इन्द्रिय निरपेक्ष अध्यात्म सुख को प्राप्त होता है। Jain Education International - 32 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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