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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जो योगी इन भावनाओं में लीन रहता है वह जगत् के वृत्तान्त को, उसकी वास्तविकता को जानता हुआ निश्चय ही अध्यात्म भाव को स्वीकार करता है। वह जागतिक प्रवृत्तियों में, इन्द्रियों के विषयों में विमोहित नहीं होता। इन भावनाओं का सम्यक् परिशीलन करने पर साधक की मोहनिद्रा छूट जाती है और वह योगनिद्रा को प्राप्त होता है। जब वह महान् साधक इन भावनाओं को स्वायत्त कर लेता है तो वह समस्त जगत् की वास्तविकता को अधिगत कर लेता है, वह उदासीन भाव प्राप्त कर लेता है और योग में मुक्त की ज्यों संप्रवृत्त रहता है तथा मुक्ति जैसे सुख की अनुभूति करता है।62
ध्यान योग्य स्थान :
____ ध्यान साधना का संबंध मुख्यत: आत्मा के साथ है किन्तु स्थान आदि बाह्य पक्षों की अनुकूलता-सात्त्विकता इसमें सहायक बनती है। इस संदर्भ में आचार्य शुभचन्द्र ने प्रतिपादित किया है कि धन्य-सौभाग्यशाली उत्तम मुनि रागादि रूप पाप फाँसी के जाल को काटकर अचिन्त्य, अपरिमित पराक्रम युक्त होता हुआ ध्यानसिद्धि के लिए विविक्त-एकान्त स्थान को स्वीकार करता है।
ध्यान एवं अध्ययन की सिद्धि के लिए उत्तम मुनीश्वरों ने कई स्थानों को उत्कृष्ट और कई स्थानों को दूषित बतलाया है। प्राणियों का चित्त दूषित स्थान के कारण तत्काल विकारग्रस्त हो जाता है और वही मन उत्तम स्थान के कारण, निश्चल एवं स्थिर हो जाता है।63
ग्रन्थकार ने उन स्थानों का जो विकारोत्पादक हैं, विस्तार से वर्णन किया है।64
निष्कर्ष यह है कि ध्यानयोगी सदैव इस ओर पूरी सावधानी वर्ते कि जिस स्थान पर वह ध्यान करता है वह स्थान सर्वथा निरापद, प्रशान्त, एकान्त और सात्त्विक वातावरणमय हो।
इसलिए अन्त में ग्रन्थकार ने पुन: कहा है कि संसार में जो ध्यानसिद्धि में 62. वही, 27.15-19 63. वही, 27.21-22 64. वही, 27.23-33
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