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________________ खण्ड : षष्ठ ध्यानों का परित्याग कर । परम पावन महापुरुषों ने ऐसा उपदेश किया है, उस पर भी भाँति चिन्तन कर तुम उन दुर्ध्यानों को शीघ्रातिशीघ्र छोड़ो। ये दुर्ध्यान पाप रूपी अटवी के बीज रूप हैं, जितने भी पाप हैं इन्हीं से पनपते हैं । ये घोर दुःख युक्त फल देने वाले हैं, अतएव सर्वथा परित्याज्य एवं परिय हैं । 56 धर्मध्यान की आराधना : ध्यान के अभ्यास में लगने को समुद्यत साधक को सम्बोधित कर ग्रन्थकार लिखा है कि प्रशमभाव कषाय की मन्दताजनित शुद्ध सात्त्विक भावों का अवलम्बन कर अपने मन को वश में कर कामभोगों से, तद्गत वासनाओं से विरत होकर धर्मध्यान का अनुचिन्तन करो | S7 जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम उन्होंने आगे लिखा है, ध्यान और वैराग्य से युक्त, इन्द्रिय और मन का संवरण करने वाला, उन्हें जीतने वाला स्थिरचेता, मुमुक्षु, धीर, प्रमाद एवं आलस्य शून्य ध्याता ही प्रशंसनीय है। हुए वैसा ध्यानयोगी अपने द्वारा स्वीकृत ध्यान साधने की तत्त्वतः अर्हता लिये है। ज्ञानवैराग्य की चर्चा कर ग्रन्थकार ने आगे ध्यानाभ्यासी की चित्त की निर्मलता, पवित्रता और उदारता के लिए, जो ध्यान के सम्यक् निर्वाह हेतु आवश्यक है, ऐसी मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य रूप चार भावनाओं का अभ्यास करने का निर्देश किया है। ध्यान के सिद्ध होने में इन्हें सहयोगी माना है । मैत्री भावना : ग्रन्थकार ने लिखा है- क्षुद्र, सूक्ष्म, बादर या स्थूल भेद युक्त त्रस स्थावर प्राणी तथा विभिन्न योनियों में अवस्थित जीव अपनी-अपनी सुख - दुःखादि अवस्थाओं में विद्यमान हैं, उन सब के प्रति समानता का भाव रखते हुए किसी की भी विराधना न हो, सभी अपने-अपने रूप में सुखी रहें, सब के प्रति इस प्रकार का उत्तम चिन्तन मैत्री भावना है। सभी प्राणी क्लेश और दुःख से रहित होकर अपना जीवन जीते रहें, वैर और पापपूर्ण कार्यों तथा परपीड़न का परित्याग कर सब सुखी रहें । 58 56. वही, 26.44 वही, 27-1 वही, 27.6-7 57. 58. Jain Education International 31 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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