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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड: षष्ठ
संरक्षणानन्द :
जो प्राणी रौद्र-क्रूर चित्त होकर अपने आरम्भ-समारम्भ एवं परिग्रह की रक्षा हेतु नियम से उद्यत रहे, सतत प्रयत्नशील रहे तथा अपनी मन:संकल्प परम्परा को उसी के साथ जोड़े रखे, चित्त में क्रूरतापूर्ण महत्ता का अवलम्बन कर ऐसा सोचे कि मैं राजा हूँ, परम शक्तिशाली हूँ, मैं अपने प्राप्त परिग्रह तथा भोगोपभोग आदि के पदार्थों का संरक्षण करने में समर्थ हूँ। इस प्रकार की चित्त की एकाग्रता विषयसंरक्षणरौद्रध्यान के भेद में समाविष्ट है।53 रौद्र ध्यान के बाह्य चिह्न :
रौद्रध्यान के चारों भेदों का निरूपण करने के पश्चात् ग्रन्थकार ने रौद्रध्यान की पहचान का वर्णन करते हुए लिखा है-क्रूरता, दण्ड की परुषता, दण्ड की भीषणता, वञ्चकता, कठोरता एवं नृशंसता ये रौद्रध्यान की आन्तरिक पहचान हैं।
चिनगारी की ज्यों नेत्रों की लालिमा, भौंहों की वक्रता, आकृति की भयानकता, देह की कंपनशीलता तथा शरीर में स्वेद का आ जाना इत्यादि रौद्रध्यान के बाह्य चिह्न हैं।
रौद्रध्यान क्षायोपशमिक भाव है। इसका समय अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त माना गया है। इसके साथ दूषित अभिप्राय जुड़े रहते हैं इसलिए यह अप्रशस्त है। जब यह ध्यान प्राणियों में आविर्भूत होता है तो लोकत्रय के वैभव को प्राप्त करवाने वाला धर्म रूपी कल्पवृक्ष आधे क्षण मात्र में दग्ध हो जाता है।
अन्त में, उन्होंने अप्रशस्त ध्यानों की उत्पत्ति के विषय में कहा है कि अनादिकाल के दृढ़ संस्कारों के परिणामस्वरूप जीवों के स्वयं ही बिना किसी प्रयत्न के ये दुर्ध्यान प्रतिक्षण उत्पन्न होते रहते हैं।55
अत्यन्त प्रेरणापूर्ण शब्दों में ग्रन्थकार ने साधक को उद्बोधित करते हुए कहा है कि हे धीर पुरुष यदि तू मोक्षमार्ग में संप्रवृत्त हुआ है तो अनेक रूप निन्दनीय दूषित 53. वही, 26.29 54. वही, 26.37-40 55. वही, 26.43 ~~~~~~~~~~~~~~~ 30 ~~~~~~~~~
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