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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम मृषानन्द: रौद्रध्यान के दूसरे भेद मृषानन्द को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है“मनुष्य असत्यमूलक कल्पना जाल के पापरूपी कालुष्य से मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करता है, तन्मूलक पुन:-पुन: विचार करता है, ऐसा करने में संलग्न होता है, वह मृषानन्द नामक रौद्रध्यान है। मृषानन्द ध्यान में अनुरक्त पुरुष ऐसा सोचता है कि प्रवञ्चनापूर्ण शास्त्रों की रचना कर असत्य एवं निर्दयतापूर्ण मार्ग को प्रचलित कर जगत् को उस मार्ग में प्रवृत्त कर कष्टों में डालकर अपना मनोवांछित सुख मैं ही भोगूं, असत्यपूर्ण चातुर्य के प्रभाव से लोगों का अनेक प्रकार से धन ग्रहण करूँ, अश्व, गज, नगर, रत्नसमूह, सुन्दर कन्यायें आदि प्राप्त करूँ, इस प्रकार सद्धर्म से च्युत होकर असत्य वचनों द्वारा वञ्चना पूर्वक ठगे, ऐसा पुरुष रौद्रध्यान के मृषानन्द भेद का धाम-गृह-आवासस्थान है। दोषरहित जनों के मिथ्याकल्पित आरोपित दोषों को सिद्ध कर अपने असत्यमूलक कौशल के प्रभाव से अपने शत्रुओं का राजा के द्वारा अथवा अन्य किसी के द्वारा घात करवाऊँ, मरवाऊँ इस प्रकार का चिन्तन इसी के अन्तर्गत है। - अपने वाक् कौशल, वचन की प्रवीणता के प्रयोग द्वारा अपने वांछित प्रयोजनों को सिद्ध करने हेतु अज्ञजनों को निरर्थक संकट में डालूँ, ऐसा चिन्तन भी रौद्रध्यान के इसी भेद के अन्तर्गत है।51 चौर्यानन्दः चौर्यानन्द ध्यान का लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि जो चोरी के कार्यों के उपदेश के अधिक्य तथा चौर्य कर्म में चातुर्य और उनमें तत्परचित्त हो, उसकी मानसिकता, एकाग्रता उसी दिशा में बनी रहती है वह चौर्यानन्द ध्यान है। जो चौर्य कर्म के लिए निरन्तर चिन्तित रहे, चोरी करके हर्षित एवं आनन्दित रहे तथा चोरी द्वारा दूसरे के धन का हरण करे, ज्ञानीजनों ने वैसे पुरुष के ध्यान को चौर्यानन्द रौद्रध्यान कहा है।52 51. वही, 26.16-22 52. वही, 26-24-25 29 ~~~~~~~~ ~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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