SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श पायेगा, जीवों को मारकर, बलि देकर कीर्ति, शान्ति आदि हेतु मैं देवादि की पूजा करूँगा-अर्चन करूँगा, इस प्रकार के प्राणी जो हिंसामूलक चिन्तन में आनन्द लेते हैं वह हिंसानन्द रौद्रध्यान के अन्तर्गत है । गगनचर, स्थलचर, जलचर प्राणियों के खण्ड करने, जलाने, बाँधने, छेदने एवं घातने आदि का यत्न करना, उनके चर्म, नख, हाथ, नेत्र आदि का उत्पाटन करने आदि क्रूर कर्मों में जिन्हें कुतूहल मनोरंजन प्रतीत हो ऐसे क्रूरचेता व्यक्तियों का ध्यान इसी कोटि में है । " 50 इस संदर्भ में महर्षि पतंजलि कृत 'योगसूत्र' का वह प्रसंग स्मरणीय है जहाँ 'योगसूत्र' के समाधिपाद के दूसरे सूत्र 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः” का भाष्यकार व्या ने विवेचन किया है। चित्तवृत्तियों का निरोध शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के लक्ष्यों या केन्द्रों पर किया जा सकता है। ऐसा किये जाने के मूल में करने वाले व्यक्ति की मानसिकता ही कारण बनती है। जहाँ आत्मसाधना का ध्येय हो वहाँ साधक पवित्र पावन ध्येय पर अपनी वृत्ति को टिकाता है, उसका निरोध करता है या एकाग्र करता है । किन्तु जहाँ व्यक्ति की मानसिकता विचारग्रस्त हो वहाँ एकाग्रता तो हो सकती है किन्तु उसका केन्द्र आत्मविपरीत दूषित या पाप पूर्ण होता है । भाष्यकार व्यास ने इस प्रसंग में क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध के रूप में पाँच मनोभूमियों का जो विवेचन किया है, उसके अन्तर्गत क्षिप्त भूमि का जो प्रतिपादन हुआ है उसके अनुसार क्षिप्त भूमि में अवस्थित साधक में आध्यात्मिक विषयों के चिन्तन के लिए जैसी स्थिरता होनी चाहिए, वैसी नहीं होती । उसका अस्थिरता युक्त चित्त, हिंसा, वैमनस्य तथा द्वेष आदि से आविष्ट रहता है और उन्हीं पर वह एकाग्र या ध्यानस्थ हो सकता है। खण्ड: षष्ठ यद्यपि यह ध्यान तो है किन्तु दूषित, अशुभ और अनुपादेय है । भाष्यकार व्यास का यह विवेचन रौद्र ध्यान के हिंसानन्द भेद से तुलनीय है । 50. वही, 26.4-8 Jain Education International F 28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy