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________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ इत्यादि अनिष्ट पदार्थों-प्रसंगों के संयोग से जो ध्यान होता है, वह आर्त्त ध्यान के प्रथम भेद के अन्तर्गत है।43 इष्ट पदार्थों के वियोगजनित द्वितीय आर्त ध्यान के विषय में उन्होंने लिखा है, “जो राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य भोग आदि के विनष्ट होने पर तथा चित्त में प्रीति उत्पन्न करने वाले सुन्दर, प्रिय, इन्द्रियविषयों के प्रध्वस्त होने पर संत्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक एवं मोह के कारण अनवरत खेद रूप होना सो जीवों के इष्ट वियोगजनित आर्त ध्यान है। यह कलंकास्पद यानी पाप का स्थान है।44 रोगादि प्रकोपजनित तृतीय आर्त ध्यान का निरूपण करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि वात, पित्त, कफ के प्रकोप से प्रादुर्भूत, देह के लिए कष्टप्रद, अत्यन्त प्रबल, भीषण, प्रतिक्षण उत्पद्यमान कास, श्वास, भगंदर, जलोदर, वार्धक्यजनित जर्जरता, कुष्ठ, अतिसार, ज्वर आदि रोगों से मनुष्यों के जो आकुलता बेचैनी उत्पन्न होती है और उस ओर मन दुश्चिंतन में एकाग्र हो जाता है वह रोग, पीड़ाजनित आर्त्त ध्यान है। यह ध्यान दुर्निवार है, इसे रोकना बहुत कठिन है, यह दु:खों का आकर है और पापों के बन्ध का हेतु है। 'इच्छा हु आगाससमा अनन्तया' - इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं।46 बड़ी कठिनता यह है कि जब तक यथार्थ बोध का उदय नहीं होता तब तक पुण्य कर्म करते हुए भी प्राणी में अनेकानेक इच्छाएँ बनी रहती हैं और वह अपने पुण्य फल को भावी सुखों के साथ जोड़ लेता है। निरन्तर उसी चिन्तन में एकाग्र रहता है। शास्त्रों की भाषा में यह निदान है जो सर्वथा वर्ण्य एवं त्याज्य है। निदानप्रसूत ध्यान में व्यक्ति किस तरह दुर्निमग्न हो जाता है, इसका वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है - "धरणेन्द्र के सेवनीय भोग, जगत्त्रय को जीतने वाली रूप साम्राज्य की लक्ष्मी, अतिशय सौन्दर्य, शत्रु रहित राज्य, नृत्य में देवांगनाओं को भी पराजित करने वाली स्त्री, और भी आनन्दप्रद पदार्थ मुझे कैसे प्राप्त हों, इस प्रकार का चिन्तन चौथा आर्तध्यान है। यह संसार वृद्धि का मूल कारण है।47 43. वही, 25.25 44. वही, 25.29 45. वही, 25.32 46. उत्तराध्ययन सूत्र 9.48 47. ज्ञानार्णव 25.34-35 - ~ - ~ ~ - ~ ~ ~ - ~ ~ - ~ - 26 ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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