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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
जो पुरुष भव-भ्रमण के खेद से परिश्रान्त होकर शिव-कल्याण या मोक्ष प्राप्त करने की दिशा में प्रगतिशील हैं, वे तो युक्तिपूर्वक आगम द्वारा निर्णीत सत् पथ पर ही गतिशील होते हैं । वे विपरीत चेष्टाओं में नहीं पड़ते । 39
प्रशस्त और अप्रशस्त ध्यान का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि जिस ध्यान से साधक अस्तराग-राग रहित हो जाय और वस्तु तत्त्व का चिन्तन करे उसे आचार्यों ने प्रशस्त ध्यान कहा है। जो व्यक्ति वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता, राग आदि से जिसका चित्त उपहृत पीड़ित होता है वैसे व्यक्ति की स्वतंत्र प्रवृत्ति - उसके द्वारा किया गया एकाग्रता मूलक उपक्रम अप्रशस्त ध्यान कहा जाता है। आर्त्त ध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं । धर्म और शुक्ल ध्यान प्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत हैं । 40
आत्त ध्यान :
ऋत शब्द से आर्त्त शब्द की निष्पत्ति हुई है । ऋत का अर्थ पीड़ा या दुःख है । जिससे मन उत्पीड़ित, संक्लिष्ट या दुःखित हो उसे आर्त्त ध्यान कहा जाता है। यह असत् ध्यान है। जैसे कोई पथिक यदि दिशाओं को भूल जाता है तो वह उन्मत्त के तुल्य हो जाता है । उसी प्रकार अविद्या या मिथ्याज्ञान की वासना से उत्पन्न इस ध्यान से व्यक्ति विमूढवत् विषादयुक्त बन जाता है। 41
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आगे आचार्यश्री ने अनिष्ट पदार्थों के संयोग, इष्ट पदार्थों के वियोग, रोगादि प्रकोप की पीड़ा तथा निदान आगामीकाल में भोगाभिवांछा से होने वाले आर्त्तध्यान के चार भेदों का संकेत किया है। 42
39. वही, 25.14
40. वही, 25.18-20 वही, 25.23
41.
42. वही, 25.24
अनिष्ट संयोगजनित आर्त्त ध्यान का विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है कि इस संसार में अपने स्वजन, धन, देह, इनके नाश करने वाले अग्नि, जल, विष, शस्त्र, सर्प, सिंह, दैत्य तथा स्थल के, जलके एवं बिलवर्ती जीव, दुष्ट जन, शत्रु, राजा
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