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________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ UN'Syno sit 'ज्ञानार्णव' का वर्णन क्रम विषयानुबन्ध की दृष्टि से बड़ी विलक्षणता लिये हए है। आचार्य शुभचन्द्र तो एक सर्वतोमुखी अध्यात्मयोगी की भूमिका वाले महापुरुष थे। इसका अभिप्राय यह है कि चिन्तन के क्षणों में उनका ध्यान जब जिस विषय की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ, उसी पर उनकी लेखनी गतिशील होती रही। किन्तु इतना अवश्य है कि उन्होंने क्रमिक और पारिपार्श्विक रूप में जो भी लिखा है वह अध्यात्मयोग और उसके मुख्य विषय ध्यान के साथ किसी-न-किसी रूप से संयोजित है। अतएव समीक्षात्मक दृष्टि से वे विषय यथावत् योजनीय और व्याख्येय हैं। ध्यान के भेद : शास्त्रों में आतं, रौद्र, धर्म एवं शुक्ल के रूप में ध्यान के चार भेद बतलाये गये हैं। जहाँ-जहाँ भी इनका वर्णन हुआ है वहाँ तत्त्वत: कोई भेद नहीं है। प्रस्तुतीकरण की शैली भिन्न-भिन्न लेखकों की अपनी-अपनी होती है। ज्ञानार्णव' के पच्चीसवें सर्ग में आचार्यश्री ने आर्तध्यान का वर्णन किया है। मूल विषय पर आने से पूर्व उन्होंने ध्यान की विशेषता की चर्चा करते हुए कहा हैअनादि काल के विभ्रम से उत्पन्न जीव का रागादिमय, निविड़-सघन अंधकार ध्यानरूपी सूर्य के उदय होने पर तत्काल दूर हो जाता है। भवभ्रमण की ज्वाला से आविर्भूत घोर आतप की शान्ति के लिए धीर-स्थिरचेता पुरुषों ने ध्यानरूपी समुद्र में अवगाहन करना ही प्रशस्त, उत्तम बतलाया है। प्रशस्त ध्यान मोक्ष का मुख्य हेतु है। वह पाप समूह रूपी घोर अटवी को दग्धकर डालने में अग्नि के समान है।37 ग्रन्थकार ने बड़ी ही आकर्षक काव्यात्मक शैली में लिखा है कि अहो कितना बड़ा आश्चर्य है, अनेक अज्ञानी महामूर्ख, स्व - पर वञ्चक जनों ने ध्यान को भी अपनी दूषित मनोवृत्ति के कारण नरक गमन का हेतु बना दिया। कितने खेद का विषय है जब अमृत विष का काम करे, ज्ञान मोह के लिए हो और ध्यान नरक का निमित्त बन जाय, यह सब प्राणियों की विपरीत चेष्टाओं का परिणाम है। ये तो सब प्रशस्त हैं- उत्कर्ष के हेतु हैं किन्तु अज्ञानी इन्हें अप्रशस्त अपकर्ष का हेतु बना देते हैं।38 37. वही, 25.5-7 38. वही, 25.9-10 ~~~~~~ 24 wwwwwwwwwwwwwww Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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