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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
मार्ग प्राप्त हो जाता है जिस पर चलता हुआ साधक मुक्ति रमा का वरण करता है। ध्याता की योग्यता:
आचार्य शुभचन्द्र ने ध्याता की योग्यता का आकलन करते हुए प्रतिपादित किया है कि यथार्थत: ध्याता या ध्यान का अधिकारी वही हो सकता है जिसका चित्त ज्ञानामृत के पान से पवित्र हो गया हो, जिसके हृदय में संसार के स्थावर एवं जंगम प्राणियों के प्रति करुणा का सागर लहराता हो, मेरु पर्वत की ज्यों जिसके जीवन में दृढ़ता हो और जो आकाश की ज्यों निर्मल हो, वायु की तरह आसक्तिवर्जित हो तथा निर्ममत्व भाव पर आश्रित हो।31
ग्रंथकार ने आगे ऐसा भी उल्लेख किया है कि मुक्ति रूपी उन्नत भवन पर चढ़ने हेतु प्रवृत्त साधक के लिए उपर्युक्त, गुणयुक्त मुनिगण के चरणों की छाया सोपानपंक्ति जैसी सिद्ध होती है। जिस प्रकार सीढ़ियों द्वारा ऊँचे भवन पर सरलता से चढ़ा जा सकता है, उसी प्रकार गुण-गण विभूषित मुनिवृन्द के सानिध्य और प्रेरणा से ध्यान के माध्यम से मोक्ष जैसे उच्च स्थान को अधिगत किया जा सकता है।32
ऐसे साधनाशील योगनिष्णात मुनिवृन्द की विशेषताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने आगे लिखा है- वे अध्यात्मयोगनिरत मुनिवृन्द ऐसे हैं जिन्होंने अपने चित्त रूपी प्रचण्ड पक्षी को अर्थात् तीव्र गति से उड़ते हुए पक्षी की तरह इधर-उधर भागते हुए मन को निश्चल बना लिया है। पंचेन्द्रिय रूप वन को दग्ध कर डाला है, ध्यान द्वारा समस्त पापों को ध्वस्त कर दिया है, जो विद्या रूपी समुद्र के पारगामी हैं, क्रीड़ा मात्र से बड़ी ही आसानी से कर्मों को मूलत: नष्ट कर रहे हैं। कारुण्यरूप पुण्य से जिनका चित्त पवित्र है, संसार रूपी भयानक दैत्य को जिन्होंने कुचल डाला है। ऐसे प्रशान्तचेता मुनिवृन्द के लिए विन्ध्याचल पर्वत ही मानों नगर है। पर्वत की गुफाएँ ही मानों उनके आवास हैं। पर्वत की शिलाएँ शय्या हैं, चन्द्र ज्योत्स्ना ही जिनके लिए दीपक तुल्य है, मृग जिनके सहचर साथी हैं। सब प्राणियों के प्रति मैत्री ही उनकी भार्या है। विज्ञान ही उनके लिए प्रेय जल है, तप ही उत्तम भोजन है। वस्तुत: वे महापुरुष धन्य हैं, वे मुमुक्षु जनों को संसार रूपी कर्दम से बाहर निकलने के मार्ग का उपदेश करें। जो 31. ज्ञानार्णव 5-14-16 32. वही, 5.18 ~~~~~~~~~~~~~~~ 21 ~~~~~~
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