SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ श्वासोच्छ्वास का नियंत्रण करते हैं, और अपनी देह को निश्चल बनाये रखते हैं, इन्द्रियों की प्रसरणशीलता का संवरण करते हैं, नेत्रों की चंचलता से रहित हैं। इन्द्रजाल सदृश समस्त विकल्पों का जो प्रलय कर चुके हैं, मोहरूपी अन्धकार से जो दूर हैं समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाले तेज-पुंज को अपने हृदय में व्याप्त किये हुए हैं ऐसे ही मुनि सफलतापूर्वक ध्यान का अवलम्बन करते हैं। वे आनन्दमयी सागर में प्रवेश करने का अभ्यास करते हैं।33 जैसा संकेत किया गया है, आचार्य शुभचन्द्र का लक्ष्य ध्यानयोग की उत्तम भूमिका के साथ जुड़ा था। यही कारण है कि उन्होंने उच्चकोटि के ध्यानयोगियों को विशेषत: मुनियों के साथ जोड़ा है। जो केवल वेश से या नाममात्र से मुनि न होकर संयम, वैराग्य, शील, साधना आदि गुणों से परिपूत होते हैं वे ही मुनि हैं। वैसे मुनि जब अपने-आप को ध्यान योग के साथ जोड़ लेते हैं तो उनके व्यक्तित्व का बड़ा ही भव्य आध्यात्मिक निखार होता है। साधक का एक ऐसा विमल, उज्ज्वल रूप उन्हें अभीप्सित था, जो कोलाहल से दूर एकान्त स्थान में अथवा किसी पर्वतीय स्थल में साधना में लगा रहे। सहजरूप में प्राप्त निर्वद्य प्राकृतिक पदार्थ ही जहां उनके उपकरण होते हैं। जो वास्तव में संसार से पराङ्मुख होते हैं क्योंकि वे आत्मकल्याण को ही सर्वोपरि मानते हैं। - आचार्य शुभचन्द्र द्वारा तथाकथित गुणरहित मुनियों की जो आलोचना की गई है उसका पहले विवेचन किया जा चुका है। वे तो सच्चे मुनित्व में आस्थाशील थे। भर्तृहरि के 'वैराग्यशतक' में आए हुए कतिपय पद्य इसी प्रकार का भाव लिये मनोजय का उपक्रम : मनोजय या चित्तशुद्धि का ध्यान-साधना में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। पतंजलि ने तो ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:'34 के रूप में चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। चित्त की वृत्तियों के निरोध का आशय यह है कि इन्हें दुष्प्रवृत्तियों में न जाने 33. वही, 5.19-22 34. योगसूत्र 1-2 ~~~~~~~~~~~~~~~ 22 ~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy