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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
विवेक रूप लक्ष्मी स्थिर हो तभी तुम मन को विशुद्ध बनाने वाले ध्यान के लक्षण श्रवण करने योग्य हो।28
आगे उन्होंने ममत्व और भ्रान्ति आदि को छोड़ने की विशेष रूप से प्रेरणा दी है तथा संवेग, निर्वेद, वैराग्य और विवेक अपनाने का उपदेश दिया है। कामभोगों से तथा भौतिक अभीप्साओं से पृथक् होने की शिक्षा दी है। उन्होंने ध्यानाभ्यासी के लिए वैसा करना आवश्यक बतलाया है।
उन्होंने आगे एक विशेष अपेक्षा से ध्यान के भेदों का निरूपण करते हुए लिखा है- संक्षेप में तत्त्वों का निरूपण करने में अभिरुचिशील ज्ञानीजनों ने ध्यान तीन प्रकार का बतलाया है क्योंकि जीव का आशय या अभिप्राय प्रवृत्तिरूप उपक्रम तीन प्रकार का होता है। उनमें प्रथम पुण्य रूप शुभ आशय, दूसरा उसका विपक्षी पाप रूप अशुभ आशय
और तीसरा शुद्धोपयोगरूप आशय है। पुण्य रूप आशय से, शुद्ध लेश्याओं के अवलम्बन से तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप के चिन्तन के परिणाम स्वरूप जो ध्यान उत्पन्न होता है वह प्रशस्त ध्यान कहलाता है। जीवों के पाप रूप आशय, मोह, मिथ्यात्व, कषाय तथा तत्त्वविभ्रम से उत्पन्न होने वाला अप्रशस्त असमीचीन ध्यान होता है। राग-प्रवाह का क्षय होने पर अन्तरात्मा में होने वाले प्रसन्न आनन्दमय भाव के परिणामस्वरूप होने वाला आत्मस्वरूपानुगामी शुद्ध ध्यान है।
साधक शुभ ध्यान के फल से स्वर्गादि के सुख प्राप्त करता है तथा आगे क्रमश: मोक्षगामी बनता है। दूषित ध्यान से जीव दुर्गति पाता है क्योंकि वह अशुभ प्रवृत्तिमूलक है जिसे नष्ट कर पाना बहुत कठिन है। जीव के शुद्धोपयोग का परिणाम समस्त दु:खों से वर्जित स्वभावोत्पन्न अविनश्वर ज्ञान रूप साम्राज्य है अर्थात् उससे ज्ञान की समग्रता प्रतिफलित होती है।29 ग्रंथकार ने तात्त्विक दृष्टिकोण से यहाँ ध्यान को सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय से जोड़ा है। आचार्य उमास्वाति ने इन तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है।30
दार्शनिक चिन्तन-मनन तथा आचार विषयक विविध विधिक्रम इन तीनों का ही विस्तार है। ध्यान से इनकी सुखद निष्पत्ति परिघटित होती है। यों मोक्ष का यथार्थ 28. वही, 3.15-17 29. वही, 3.27-34 30. तत्त्वार्थसूत्र 1-1 ~~~~~~~~~~~~~~- 20 ~~~~~~~~
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