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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम काम, मोक्ष चार प्रकार का है। इन चारों में पहले तीन सापाय-अपाय या विघ्नयुक्त हैं, नश्वर हैं। तत्त्ववेत्ताओं ने चतुर्थ पुरुषार्थ को ही सार रूप माना है और वे उसी को साधने का प्रयत्न करते हैं। वह पुरुषार्थ ऐसा है - जिसमें प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग रूप समस्त कर्मसम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है। वह संसार का प्रतिपक्षी है।25 उन्होंने आगे कहा है, मोक्ष शिवपद स्वरूप है। वह आत्मा की निर्मलता की स्थिति है। वह शरीर रहित, क्षोभ रहित, शान्तस्वरूप, सिद्धस्वरूप, सर्वथा अविनश्वर, आनन्दस्वरूप एवं कृतकृत्यता की स्थिति है। धीर पुरुष अनन्त प्रभावापन्न मोक्षरूप कार्य के निमित्त समस्त भ्रान्तियों का परित्याग कर कर्मबन्ध नष्ट करने हेतु तप को स्वीकार करते हैं। वीतराग प्रभु ने सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का हेतु बतलाया है। अत: जो मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं वे इन तीनों की आराधना करते हैं। मोक्ष के साथ इनका कार्य-कारण सम्बन्ध है।26 उन्होंने साधक को सम्बोधित करते हुए कहा है कि तुम सांसारिक दुःखों के विनाश हेतु ज्ञानरूपी अमृत रस का पान करो तथा संसार समुद्र को पार करने के लिए ध्यान रूपी पोत-जहाज का आश्रय लो। मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है। सम्यग्ज्ञान से कर्मक्षय होता है। सम्यग्ज्ञान ध्यान से सिद्ध होता है। इस प्रकार ध्यान और ज्ञान का पारस्परिक सामंजस्य है। ध्यान में ही आत्मा का हित सन्निहित है। इसलिए कर्मों से मुक्त होने के इच्छुक, कषायों को मन्द बनाने में तत्पर साधक संकल्प-विकल्पों का नाश कर नित्य ध्यान का ही आलम्बन लेते हैं।27 वे पुन: साधक को सम्बोधित करते हैं - मोह का परित्याग करो, स्वस्थता-आत्मस्थता प्राप्त करो, आसक्तियों को छोड़ो, स्थिरता प्राप्त करो, ऐसा करने पर तुम ध्यान को समझने एवं स्वीकार करने के अधिकारी बनोगे। यदि तुम बड़े कष्टों से पार किये जाने योग्य संसार रूपी घोर कीचड़ से निकलना चाहते हो तो ध्यान में निरन्तर धैर्यशील क्यों नहीं बनते। यदि तुम्हारे चित्त में शंका विवर्जित 25. वही, 3.1-6 26. वही, 3.9-12 27. वही, 3.13-14 Mmmmmmmmmmmmmmmmmar 19 ~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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