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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
है। साधक इन तीनों का अभ्यास करता हुआ आस्रव निरोध कर संवर का आश्रय लेकर निर्जरा रूप में संलग्न होकर ध्यान आदि की साधना के माध्यम से अपना कल्याण साधे।
धर्म भावना - इस भावना का विवेचन प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में लिखा है :
पवित्रीक्रियते येन येनैवोद्धियते जगत्। नमस्तस्मै दयार्द्राय धर्मकल्पाध्रिपाय वै॥
जो जगत् को पवित्र करता है, जिसके द्वारा प्राणी जगत् से अपना उद्धार कर लेता है, जो दया-करुणा के दिव्य रस से आर्द्र है, आपूरित है, जो कल्पवृक्ष के समान आत्मा के लिए कल्याणमय फलप्रद है, उस धर्म को मेरा नमन है।21 _ जिनेन्द्रदेव द्वारा प्ररूपित दशलक्षण युक्त धर्म की आराधना कर संयमी साधक मुक्ति प्राप्त करते हैं, मिथ्यादृष्टि तथा हिंसा एवं इन्द्रिय विषयों के पोषक शास्त्रों द्वारा उसे सम्यक् रूप में नहीं समझा जा सकता। चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि और कामधेनु तथा कल्पवृक्ष ये सब धर्म के चिरकाल से भृत्य या सेवक जैसे हैं। धर्म जीवों को चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, देवेन्द्र द्वारा वांछित, त्रैलोक्य पूजित आध्यात्मिकश्री संपन्न तीर्थंकर पद तक प्राप्त करा देता है। धर्म संकटावस्था में समस्त चराचर विश्व की रक्षा करता है। वह सुखरूपी अमृत का पूर - प्रवाह है। समस्त जगत् को आत्मिक तृप्ति प्रदान करता है।22
इस भावना के अन्त में जो श्लोक ग्रन्थकार ने लिखा है, वह निस्सन्देह जिज्ञासु मुमुक्षु में धर्म के प्रति अन्तःस्फूर्ति उत्पन्न करता है -
यदि नरकनिपातस्त्यक्तुमत्यन्तमिष्ट स्त्रिदशपतिमहद्धि प्राप्तुमेकान्ततो वा। यदि चरमपुमर्थः प्रार्थनीयस्तदानीं,
किमपरमभिधेयं नाम धर्म विधत्त !! 21. वही, धर्मभावना, 2-1 22. वही, धर्मभावना, 2-6 ~~mmmmmmmmmmmmm 17 ~~~~~~~~~~~~~~~
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