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________________ आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श खण्ड : षष्ठ जिनका मन रागरंजित है और कांदी, कैल्विषी, आभियौगिकी, आसुरी, संमोहिनी आदि कलुषित भावनाओं से जुड़ा रहता है, उन्हें वस्तु तत्त्व का बोध कैसे हो सकता है ?10 जिनमें अनासक्ति और निर्वेद का भाव नहीं है, जो अविद्या या मिथ्यात्व रूपी व्याघ्र के वशीभूत हैं, जिनकी मोक्ष एवं मोक्षमार्ग में अभिरुचि नहीं है, वे आत्मस्वरूप का बोध कैसे प्राप्त कर सकते हैं। जिनके मन में अकरुणा व्याप्त है, जो भेद-विज्ञान से रहित हैं, विषयभोगों से विरत नहीं हैं, वे ध्यान करने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं ? जो लोगों को प्रसन्न करने हेतु पापरूपी कार्यों को करते हैं और अपने को बड़ा मानते हुए जिनकी आत्मस्वरूप में अनुरक्ति नहीं है, जो इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों में लीन हैं, जिन्होंने मन के शल्य को दूर नहीं किया है, जिनकी अध्यात्म में निष्ठा नहीं है, जिन्होंने अपने भावों से दूषित लेश्याओं को पृथक् नहीं किया है, ऐसे पुरुष ध्यानसाधना के अयोग्य हैं। जो हास्य, कौतूहल, कुटिलता, हिंसा आदि पाप-प्रवृत्ति पोषक शास्त्रों का उपदेश करते हैं, मिथ्यात्व रूपी ज्वर से जिनकी आत्मा रुग्ण और विकृत है, मोहनिद्रा में जिनकी चेतना नष्ट हो गई है, जिनमें तपश्चरण के प्रति उद्यम दृष्टिगोचर नहीं होता, जिनमें विषयों के प्रति अत्यधिक लालसा तथा तृष्णा बनी रहती है, जो परिग्रह में आसक्त हैं, सत् तत्त्वों के प्रति शंकाशील हैं, जो आत्महित को तृण के तुल्य समझते हैं, मृत्यु प्राप्त करने की जिनमें उत्कंठा नहीं है, वैसे व्यक्ति क्षणमात्र भी ध्यान की आराधना करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं।11 वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, जल-अग्नि एवं विष का स्तंभन, रसकर्म रसायन-निर्माण आदि का उपयोग करना, नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, ऐन्द्रजालिक प्रयोग करना, सेना का स्तंभन करना, विजय-पराजय का विधान करना, ज्योतिष-वैद्यक आदि के प्रयोग करना, यक्षिणी-मंत्र आदि का अभ्यास करना, पादुका-साधना करना, खड़ाऊ पहनकर आकाश या जल में चलने की सिद्धि पाना, अदृश्य होना, भूमि में गड़े धन को देखना, अञ्जन-साधना, भूत, सर्प आदि को साधना इस प्रकार के विक्रिया रूप जादूमंत्र, टोने टोटके आदि के अभ्यास और प्रयोग में जो रत रहते हैं, ऐसे तथाकथित मुनियों को ध्यान की सिद्धि होना निश्चय ही कठिन है।12 10. वही, 4.40-41 11. वही, 4.43-50 12. वही, 4.51-55 ~~~~~~~~~~~~~~~r 12 ~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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