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खण्ड : वष्ठ
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नहीं होता। मुनित्व केवल मुनि शब्द में ही गर्भित नहीं है। वह तो तदनुरूप विशुद्ध चर्या में सन्निहित है। अतएव ग्रंथकार ने इस सम्बन्ध में बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन करते हुए कहा है ध्यानतंत्र में अर्थात् ध्यान विषयक सिद्धान्त ग्रंथों में केवल मिथ्यादृष्टियों के ध्यान न सधने की बात नहीं कही गई है, किन्तु जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के जो प्रतिकूल चलते हैं, जिनका चित्त चंचल है, वैसे मुनियों के भी ध्यानसिद्धि का निषेध किया गया है। यदि किसी मुनि के जो कर्म में है वह वचन में नहीं है, जो वचन में है वह कर्म में नहीं है, जिसकी कथनी और करनी में समानता नहीं है; कर्म और वचन के अनुसार जिसके चित्त में नहीं है अर्थात् जिसके मन, वचन और कर्म में विसंगति है ऐसा मुनि ध्यानपदवी - ध्यानसिद्धि नहीं पा सकता। जो मुनि होकर भी परिग्रह रखते हैं उससे अपने आपको महत्त्वपूर्ण मानते हैं, निष्परिग्रही साधुओं को लघु या हल्का मानते हैं, उनका जीवन प्रवञ्चनामय है। शील को तुच्छ समझने वाले, अहंकार से उद्यत बने हुए, संयम की धुरा - महान् दायित्व को स्वीकार कर त्याग दिया है जिन्होंने, जो धैर्यविहीन हैं, उनका मन ध्यान करने में कैसे सक्षम हो सकता है क्योंकि हीन प्रवृत्तियुक्त, मदोन्मत्त, धैर्यरहित जनों में ध्यान की योग्यता नहीं होती। जो मुनि यश, प्रतिष्ठा और अभिमान में आसक्त हैं तथा लोकयात्रा से प्रसन्न होते हैं, अर्थात् जिनमें लोकैषणा की वृत्ति व्याप्त है उन्होंने अपने ज्ञान रूपी नेत्र को विलुप्त कर डाला है, उनमें ध्यान की योग्यता घटित नहीं होती। जिन्होंने अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए मिथ्यात्व रूपी भीषण विष का वमन नहीं किया है, मिथ्यात्व को विध्वस्त नहीं किया है वे तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान सकते। वे ध्यान के योग्य नहीं हैं। कतिपय मुनि यों कहकर ध्यान का निषेध करते हैं कि यह दुषमकाल है, पंचम आरक है। इस काल में ध्यान की योग्यता आ नहीं सकती। ऐसा कहने वाले ध्यान के अधिकारी कैसे हो सकते हैं। जिनकी बुद्धि निर्ग्रन्थ प्रवचन को छोड़कर अन्यमतों के शास्त्रों में संलग्न है, जो काम और अर्थ की लालसा से पीड़ित हैं, यथार्थ वस्तु तत्त्व में जिन्हें संदेह है वे मुनि ध्यान करने के योग्य कैसे हो सकते हैं ? मन तो स्वभाव से ही चंचल है फिर जो नास्तिकों की प्रवंचनापूर्ण बातों में आ गये हों, उनके मन में स्थिरता कैसे आ सकती है। वे ध्यान की परीक्षा में कैसे उत्तीर्ण हो सकते
हैं।
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वही, 4.30-33
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
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