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खण्ड : षष्ठ
इस सर्ग के अन्त में ग्रंथकार ने बड़े ही प्रेरणाप्रद शब्दों में लिखा है - जो पंडित या ज्ञानी न होते हुए भी अपने को पंडित मानते हैं, शम, दम और स्वाध्याय के अभ्यास से रहित हैं, राग, द्वेष मोह आदि पिशाचों द्वारा गृहीत हैं, जो मुनित्व को नष्ट करने वाले गुणों की ओर उन्मुख हैं, विषयों से आकृष्ट हैं, मदोन्मत्त हैं, शंका संदेह रूपी शल्य से आबद्ध हैं, ऐसे तुच्छ पुरुष न ध्यान करने में समर्थ हो पाते हैं और न भेदविज्ञान ही कर सकते हैं।
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जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आचार्य शुभचन्द्र द्वारा गृहस्थों और मुनियों को उद्दिष्ट कर जो वर्णन किया गया है उससे यह स्पष्ट है कि वे ध्यान साधना का आधार वस्तुतः शुद्ध श्रद्धान, ज्ञान, सदाचरण, संयम, शील तथा आत्मपुरुषार्थ एवं पराक्रम को ही मानते थे । उनकी दृष्टि में मुनित्व तभी सार्थकता पाता है जब मुनि में अपने पद के अनुरूप समग्र गुण आलोकित होते हैं। मुनि कहलाते हुए भी यदि उपर्युक्त गुण उसमें नहीं हैं तो वह ध्यान का कदापि अधिकारी नहीं है। यह सारा प्रतिपादन आत्मगुण-निष्ठता पर आधारित है।
द्वादश भावनाओं का सार :
भावनाओं का चित्तशुद्धि के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है । चित्तशुद्धि से ध्यान परिपुष्ट होता है, एकाग्रता सिद्ध होती है। अतएव भावनाओं का अनुशीलन, अभ्यास ध्यानसाधना में अनन्य उपयोगिता लिये हुए है।
आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' के द्वितीय सर्ग में भावना के बारह भेदों का पृथक्-पृथक् विस्तार से विवेचन किया है । यद्यपि मूल तत्त्व की दृष्टि से तो विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु आचार्य शुभचन्द्र ने सरल मधुर काव्यात्मक शैली में जो विशद वर्णन किया है वह सहृदय पाठकों के लिए बड़ा ही मनोज्ञ है ।
अनित्य भावना :
सबसे पहले अनित्य भावना का निरूपण करते हुए उन्होंने संसार के उन पदार्थों पर प्रकाश डाला है जो अनित्य एवं नश्वर हैं किन्तु खेद है कि मोहवश मानव उन्हें अविनश्वर या नित्य समझता हुआ उनमें बँधा रहता है, फँसा रहता है, अपने आपको 13. वही, 4.62
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