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________________ खण्ड : षष्ठ जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम को उन्होंने निरूपणार्थ गृहीत किया है उसका बड़े ही सुन्दर आकर्षक एवं सुष्ठु रूप में पर्यवसान भी किया है। आचार्य ने अपने इस ग्रन्थ में पद्यात्मक शैली के साथ-साथ गद्यात्मक शैली का प्रयोग भी किया है। उनके पद्यों में सरसता है, प्रवाह है। भाषा विषय को सहज रूप में अपने में समेटे हुए सरिता की थिरकती हुई लहर की तरह गतिशील है। इसमें अनुष्टुप्, मालिनी, शिखरिणी, इन्द्रवज्रा, स्रग्धरा इत्यादि विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। गद्य में प्रौढ़ता, शब्द-सौष्ठव और भाव गांभीर्य है। आचार्य शुभचन्द्र का जन्म कहाँ हुआ ? मुनिजीवन में वे कहाँ, कैसे दीक्षित हुए ? उनका जीवन किन-किन क्षेत्रों में किस-किस प्रकार व्यतीत हुआ ? इत्यादि ऐतिहासिक तथ्य प्रामाणिक रूप में आज प्राप्त नहीं हैं। उन्होंने अपने इस महान् ग्रन्थ में अपने सम्बन्ध में परिचयात्मक दृष्टि से कुछ भी नहीं लिखा। लगता है, उन्होंने अपने ध्यानयोग विषयक कृतित्व को ही अपना परिचय माना। भारतवर्ष के प्राचीन अनेकानेक तप:पूत मनीषियों, ऋषियों और ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में हमें प्राय: ऐसा ही दृष्टिगोचर होता है। इससे यह प्रकट होता है कि वे महापुरुष अत्यन्त नि:स्पृह थे। लोकैषणा के प्रति उनमें जरा भी आकर्षण नहीं था। सम्भवत: इसी कारण ऐसा होता रहा। यह उन महापुरुषों की तितिक्षावृत्ति का द्योतक है। किन्तु साहित्यिक अनुसंधाताओं के लिए इससे प्राचीन साहित्य स्रष्टाओं के इतिहास को जानने और प्रकट करने में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। वे आगे-पीछे के विद्वानों के ग्रन्थों के आधार पर विविध रूप में काल आदि निर्णय के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र के सम्बन्ध में भी विद्वानों ने अनेक प्रकार से कल्पनायें की हैं। कुछ विद्वान् इन्हें धारानरेश महान् संस्कृत-सेवी महाराज भोज का समसामयिक मानते हैं, महान् योगी भर्तृहरि के साथ भी इनका नाम जोड़ा जाता है। भर्तृहरि भी भारतीय इतिहास के एक लोकप्रिय व्यक्तित्व हैं। सम्भवत: इस नाम के अनेक व्यक्ति हुए हों। एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि भर्तृहरि के 'वैराग्यशतक' तथा शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में अनेक पद्य समरूप मिलते हैं। इससे ऐसा अनुमान करना असंगत नहीं होगा कि वैराग्यशतक' के प्रणेता के साथ उनका कुछ - न - कुछ सम्बन्ध रहा हो। ग्रन्थ के मंगलाचरण के सोलहवें श्लोक में उन्होंने आचार्य जिनसेन का आदरपूर्वक स्मरण किया है। इससे प्रकट होता है कि वे जिनसेन के पश्चात्वर्ती थे। ~~~~~~~~~~~~~~~ 3 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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