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________________ आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श आचार्य जिनसेन का समय प्राप्त प्रमाणों के अनुसार ईसवी सन् 898 माना जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य शुभचन्द्र 9वीं शताब्दी के पश्चात् हुए। किन्तु कितने पश्चात् हुए, कब हुए ? इस सम्बन्ध में परिपुष्ट प्रमाण नहीं मिलते। विद्वानों ने विविध रूपों में ऊहापोह कर इनका समय 11वीं एवं 12वीं शताब्दी निश्चित करने का प्रयास किया है। खण्ड: षष्ठ आचार्य हेमचन्द्र के ‘योगशास्त्र' एवं आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' का यदि तुलनात्मक परिशीलन किया जाय तो ऐसा लगता है कि इन दोनों के समय के बीच कोई लम्बा व्यवधान संभव नहीं है । पिण्डस्थ ध्यान की धारणायें आदि अनेक विषय ऐसे हैं जिनमें वर्णित तथ्य दोनों ही ग्रन्थों में अपनी अपनी शैली के अनुसार एकरूपता लिये हुए हैं। • ऐसा सम्भव है कि 'ज्ञानार्णव' और 'योगशास्त्र' की रचना के समय भारतवर्ष साधना के क्षेत्र में योग का विशेष रूप से प्रसार रहा हो । दिगम्बर परम्परा में आचार्य शुभचन्द्र ने और श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने जैनयोग के रूप में अपनेअपने क्षेत्रों में इसे उद्भावित किया हो । अध्यात्मयोग की साधना की दृष्टि से दिगम्बर और श्वेताम्बर आम्नायों में मौलिक अन्तर नहीं है । Jain Education International आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में उन विषयों की भी विशेष रूप से चर्चा की है जिनसे प्रेरित होकर साधक सात्त्विक आचार की भूमिका स्वीकार कर सके । यही कारण है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान आदि का विवेचन करते हुए उन्होंने अहिंसादि महाव्रतों का विवेचन किया है। आचार्य ने ब्रह्मचर्य पर अत्यन्त जोर दिया है ताकि साधक उससे कदापि न डिगे । इसलिए उन्होंने उसे विविध रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस सन्दर्भ में उन्होंने बारहवें, तेरहवें, चौदहवें सर्ग में स्त्रीस्वरूप, स्त्री-संसर्ग आदि की विस्तार से चर्चा की है। स्त्री के सम्बन्ध में जो उद्गार उन्होंने प्रकट किये हैं, तदनुसार स्त्री का सर्वथा परिहेयत्व सिद्ध होता है । अतएव कुछ विद्वानों द्वारा ऐसी आलोचना की जाती है कि उन्होंने जो स्त्री की निन्दा की है वह कहाँ तक संगत है, यह विचारणीय है। स्त्री के उस दिव्य, पवित्र आदर्श रूप को जो राजीमती तथा चन्दनबाला आदि अनेक महासतियों में व्यक्त था, वे क्यों भूल गये ? इस सम्बन्ध में यदि गहराई से विचार करें तो हमें आचार्य शुभचन्द्र के अत्यन्त For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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