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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ऐसी अन्तर्यात्रा है जो उसके जीवन को सफल बना देती है। योग इस अन्तर्यात्रा का संवाहक है।
फिर उन्होंने तात्त्विक, अतात्त्विक, सानुबन्ध, निरनुबन्ध, सास्रव, अनास्रव के रूप में छह भेदों का निरूपण किया है।53 यथाप्रसंग ध्यान का भी इस ग्रन्थ में वर्णन हुआ है। उन्होंने लिखा है कि शुभ प्रतीकों पर एकाग्र होना, उनका आलम्बन लेकर चित्त को स्थिर करना ध्यान है। वह स्थिर प्रदीप के दीपक की सुस्थिर ज्योति के समान प्रकाशमय होता है। साथ-ही-साथ वह सूक्ष्म एवं अन्त:प्रविष्ट आत्म चिन्तन से समायुक्त होता है। ध्यान के सध जाने पर वसिता, आत्मवसिता, आत्मनियंत्रण या जितेन्द्रियत्व सध जाता है और उसकी सब पर अक्षुण्ण प्रभावशीलता होती है, मानसिक स्थिरता निष्पन्न होती है। संसारानुबन्ध-भव-परम्परा, आवागमन का चक्र उच्छिन्न हो जाता है, उन्मुक्त भाव सिद्ध होता है।
आचार्य हरिभद्र सूरि महान् दार्शनिक और प्रकाण्ड पण्डित थे। जैन, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, बौद्ध, मीमांसा आदि लगभग सभी भारतीय दर्शनों पर उनका असाधारण अधिकार था। यही कारण है कि उन्होंने 'योगबिन्दु' में योग साधना के संदर्भ में आत्मा, परमात्मा, मोक्ष इत्यादि विषयों का विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों से विवेचन किया है। इससे विषय की तात्त्विक पृष्ठभूमि परिपुष्ट होती है। क्योंकि साधना, अभ्यास या क्रिया तत्त्वबोध या तत्त्वदर्शन से परिपुष्ट होकर विशेष ऊर्जस्वल बन जाती है।
मशकप्रकरण :
आचार्य हरिभद्रसूरि ने ‘पञ्चाशक प्रकरण' में दसवें उपासक प्रतिमाविधि पञ्चाशक में कायोत्सर्ग प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए कहा है कि चार प्रतिमा विधि का ज्ञाता श्रावक अष्टमी और चतुर्दशी में सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित रहे और कषायों को जीतने वाले और त्रिलोकपूज्य जिनों का ध्यान करे अथवा अपने रागादि दोषों की आलोचना रूप ध्यान करे। इस प्रतिमा का उत्कृष्ट काल पाँच माह है।
इसी ग्रन्थ के उन्नीसवें तपोविधि पञ्चाशक में आभ्यन्तर तप के अन्तर्गत ध्यान 53. योग बिन्दु, 32, पृ. 89 54. वही, 362-363, पृ. 181 55. पंचाशक प्रकरण 10-17-19
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