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आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
जाता है उसी प्रकार योग रूपी अग्नि से अविद्या या अज्ञान से मलिन आत्मा शुद्ध हो जाती है। 51
ग्रन्थकार ने योग का जो इतना वैशिष्ट्य अपने ग्रन्थ के प्रारंभिक भाग में बताया है, उसका यह आशय है कि लोग, जिज्ञासु पाठक एवं साधक इस ओर प्रवृत्त हों । जो इन्होंने योग की महत्ता का उल्लेख करते हुए लिखा है वह ज्यों-का-त्यों फलित हो सकता है यदि साधक निष्ठापूर्वक योग की आराधना करे ।
आचार्य हरिभद्र ने ‘योगबिन्दु' में पूर्व-सेवा के रूप में योगी के उन कर्त्तव्यों का उल्लेख किया है जो उसे योगसाधना में आने से पहले स्वायत्त कर लेने चाहिए। उन्होंने 'बिन्दु' के श्लोक 109 से 130 तक इस पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है । इसमें उन सब उत्तम कार्यों का उन्होंने विधान किया है, जो आध्यात्मिक और लौकिक कल्याण की दृष्टि से करणीय हैं। योगी के व्यक्तित्व में एक ऐसे सौजन्य, सौमनस्य, सौहार्द, आर्जव, मार्दव आदि का भाव समुत्पन्न हो कि वह आत्मश्रेयस् के साथ-साथ, जन-जन के लिए प्रेरणास्पद बन जाये ।
आचार्य हरिभद्र ने ‘योगबिन्दु' में ध्यान का लक्षण और उसके उत्तरोत्तरगामी पाँच भेदों का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि जो मोक्ष में जोड़ता है वह योग है। अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय उसके उत्तरोत्तर विकासोन्मुख चरण हैं । 52
खण्ड : पंचम
ग्रन्थकार के अनुसार परम लक्ष्य मोक्ष है जहाँ आत्मा का कर्मरूप बन्धनों से छुटकारा हो जाता है। जो साधनाक्रम साधक को उसके परम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचाता है, मोक्ष के साथ समायुक्त, समायोजित करता है, वह योग है। उसकी फलनिष्पत्ति या सिद्धि क्रमश: अध्यात्म आदि पाँच रूपों में आगे से आगे प्रस्फुटित होती जाती है। अध्यात्म का अभिप्राय है संसारप्रवण भौतिक आकर्षण से छूटकर आत्मनिष्ठ होना । पुनः - पुनः उसमें अनुभावित होना भावना है। ध्येय पर एकाग्र होना ध्यान है । प्राणिमात्र, पदार्थ मात्र के साथ समत्व का भाव होना समता है तथा बाह्य वृत्तियों का, संचित कर्मों का क्षय कर शुद्धात्म भाव का लाभ वृत्तिसंक्षय है । यह साधक की एक 51. योग बिन्दु, 37-41, पृ. 90-91
52. योग बिन्दु, 31, पृ. 89
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