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आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना
खण्ड : पंचम
का उल्लेख किया गया है।56
__चित्त की एकाग्रता ध्यान है। आर्त, रौद्र, धर्म, शुक्ल ये चार भेद हैं। इनमें से प्रथम दो संसार के और अन्तिम दो मोक्ष के कारण हैं, इसलिए अन्तिम दो ही ध्यान रूप तप हैं।
आचार्य हरिभद्र सूरि कृत योगग्रन्थों का परिशीलन - पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि उन्होंने 'ध्यान योग' के विकास में एक नये अध्याय का सूत्रपात किया। हरिभद्र का योगविषयक वर्गीकरण पूर्ववर्ती जैन साहित्य में प्राप्त नहीं है। अन्य योगग्रन्थों से भी उन्होंने उधार नहीं लिया है बल्कि योग की पद्धतियों और परिभाषाओं का जैन पद्धतियों से समन्वय स्थापित कर जैनयोग के विकास में एक नयी दिशा प्रदान की है। जैन और योग परम्परा के संयुक्त प्रभाव से उन्होंने वर्गीकरण की योजना की है।
जैन परम्परा में योग शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा किया गया है। उन्होंने योग को परिभाषित करते हुए कहा है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए जो धर्मक्रिया अथवा विशुद्ध व्यापार किया जाता है, वह धर्मव्यापार योग है।
अपने योग - ग्रन्थों में विभिन्न साधना पद्धतियों का उन्होंने समन्वय किया है। इस समन्वय में उन्होंने जैन साधना पद्धति के चरणों 14 गुणस्थानों का महर्षि पतंजलि की तथा अन्य यौगिक पद्धतियों के साथ तुलनात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया है। अपने सर्वग्राही दृष्टिकोण से उन्हें स्वीकृत कर जैन साधना पद्धति का विकास किया है। पतंजलि ने अष्टांग योग की पद्धति बतलायी तो आचार्य हरिभद्र सूरि ने 'योगदृष्टिसमुच्चय' में आठदृष्टियों का निरूपण कर उनकी अष्टांग योग से तुलना की। पतंजलि के योगदर्शन में समाधि के दो प्रकार निरूपित हैं - सम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि । आचार्य हरिभद्र सूरि ने योग के पाँच प्रकार बतलाये - अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय। प्रथम चार प्रकारों की तुलना सम्प्रज्ञात समाधि से और अंतिम की तुलना असम्प्रज्ञात समाधि से की गई है।
इस प्रकार आचार्य हरिभद्र सूरि ने पतंजलि के योगदर्शन की परिभाषाओं का जैनीकरण किया। तुलना करने के लिए उन्होंने नये शब्दों को गढ़ा और दोनों में सामंजस्य स्थापित किया। 56. वही, 19.3 ~~~~~~~~~~~~~~~ 38 ~~~~~~~~~~~~~~~
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