________________
खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
1
भूमिकाओं को जानें, जिनके लिए जैसा समुचित समझें वैसे साधनापथ का उपदेश करें। जो सुयोग्य चिकित्सक होते हैं वे भिन्न-भिन्न रोगियों की शारीरिक स्थिति, उनकी प्रवृत्ति का भली-भाँति निदान कर, परीक्षण कर औषधि देते हैं । औषधि की मात्रा, अनुपान, औषधि सेवन काल में पथ्य- परहेज इत्यादि सभी बातों को वे दृष्टि में रखते हुए जिस रोगी को जिस प्रकार की चिकित्सा, औषधि आदि अपेक्षित होती है, वैसी ही व्यवस्था करते हैं। 44
NPN
-
-
योग का मार्ग साधकों के लिए परम श्रेयस्कर है, सुगम है, आत्मा के लिए आह्लादकारी है किन्तु साथ ही साथ वह ऐसा है जिस पर बड़ी ही जागरूकता एवं सावधानता से चलना वांछित है। इसलिए यह आवश्यक है कि साधक सुयोग्य, ज्ञानी, अनुभवी गुरु का सान्निध्य प्राप्त करे और उनसे सभी तत्त्वों को हृदयंगम करे। गुरु भी साधक की पात्रता का परीक्षण कर उसे उस अभ्यास में नियोजित करे। ऐसा होने से योग से अमृतोपम फल निष्पन्न हो सकता है, तभी वह कल्पवृक्ष और चिन्तामणिरत्न सिद्ध हो सकता है।
आचार्यश्री ने दैनंदिन जीवन के शालीनतापूर्ण कार्य, पारस्परिक - सात्त्विक व्यवहार, विनय, सौमनस्य, ऋजुता आदि का भी विभिन्न प्रसंगों में विवेचन किया है जिनसे योगसाधना सुशोभित होती है । अन्तर्जीवन एवं बहिर्जीवन दोनों ही ऐसे होने चाहिये जिनसे औरों को प्रेरणा मिले।
आचार्य हरिभद्र का इस ओर बहुत ही ध्यान रहा है कि योग से प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रेरणा मिले कि वह सबके समक्ष श्रेष्ठ धार्मिक जन के रूप में प्रस्तुत हो 1 साधना का फल वर्तमान जीवन का सुधार और विकास है ।
योगविंशिका
Jain Education International
'योगविंशिका' आचार्य हरिभद्रसूरि की बीस प्राकृत गाथाओं में एक संक्षिप्त रचना है। भारतीय साहित्य में विंशिकाओं का विशेषत: जैन साहित्य में बीस-बीस पद्यों में रचित कृतियों का विशेष क्रम रहा है। आचार्य हरिभद्र ने बीस गाथाओं में योग का एक नयी शैली में विवेचन किया है। वह वास्तव में पठनीय एवं मननीय
44. योगशतक, श्लोक. 22-23, 24, पृ. 241
31
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org