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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना खण्ड : पंचम है । कषायों की तीव्रता या मन्दता के आधार पर कर्मों की अवधि तथा फल देने की शक्ति घटित होती है। फल की कटुता या मधुरता कषायों की तीव्रता या मन्दता के 'अनुसार होती है। कर्म की कालावधि भी उसी के अनुरूप लम्बी या छोटी होती है। जैनदर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य यानी कम-से-कम और उत्कृष्ट यानी अधिक-से-अधिक दो प्रकार की कालावधि स्वीकार की गई है। कर्मों के आठ भेद हैं । उनमें मोहनीय सबसे प्रधान है। मोहनीय की अधिकतम कालावधि सत्तर कोटानुकोटि सागरोपम है । जिस जीव के कषाय अत्यन्त तीव्रता लिये रहते हैं वह इसी कालावधि के मोहनीय कर्म का बंध करता है। जिनका कषाय जितना मंद होता है उनके कर्मबंध की कालावधि उतनी ही कम होती है। कषायबन्ध का एक ऐसा क्रम भी है जब जीव का कर्मबंध अत्यधिक हल्का होता है तब जीव चरम पुद्गलपरावर्तन की स्थिति में होता है। उसके परिणामस्वरूप वह पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता। जैनदर्शन में उसकी अपुनर्बन्धक संज्ञा है, उसे शुक्लपाक्षिक भी कहा जाता है। क्योंकि तब आत्मा के स्वाभाविक गुणों की शुक्लता या उज्ज्वलता प्रकाश में आने लगती है । अपुनर्बन्धकत्व की स्थिति प्राप्त हो जाने के बाद जीव सन्मार्गाभिमुख हो जाता है । उसकी मोहरागात्मक सघन कर्मग्रन्थि उच्छिन्न हो जाती है, मिथ्यात्व मिट जाता है, सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है। वह जीव आत्मरति और परविरतिमूलक सत्पथ पर अग्रसर होता है। यह वह स्थिति है जहाँ वह योग का अधिकारी बन जाता है । वह यथाविधि योग को साधता जाता है और अन्तत: अपनी साधना को सफल कर लेता है। उसे उसका प्राप्तव्य प्राप्त हो जाता है । योग के आराधकों के संबंध में विशेष मार्गदर्शन देते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि चित्तवृत्ति का निरोध, पुण्यात्मक कुशल - उत्तम, सद् प्रवृत्ति मोक्ष से योजन इत्यादि के रूप में योग के भिन्न-भिन्न लक्षण प्ररूपित हुए हैं। वे अपनी-अपनी परम्परा के अनुरूप समुचित अनुष्ठान में घटित होते हैं किन्तु एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखने योग्य है कि दूषित ध्यान और संक्लेश से युक्त संस्कारों का अभाव होना चाहिए। जहाँ संक्लेश होता है वहाँ योग के लक्षण फलित नहीं होते । जब ध्यान दोषरहित होता है, विधिवत् होता है, चित्त के संस्कार संक्लेश वर्जित होते हैं तब अपनी-अपनी योग्यतानुसार साधकों द्वारा किया जाने वाला योगाभ्यास या साधना का उपक्रम परिशुद्ध होता है। यहाँ यह भी अपेक्षित है कि मार्गदर्शक गुरु, भिन्न-भिन्न लक्षणों से उनकी 30 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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