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________________ सुलझा पा सकने के कारण आज यद्यपि मानव अहिंसा की ओर देखने तो लगा है किन्तु अभी अहिंसा में उसकी निष्ठा निष्पन्न नहीं हो सकी है। ऐसे समय में आध्यात्मिक साधना के अनन्य साधन ध्यानयोग का अपना महत्त्व है। ध्यान द्वारा व्यक्ति आत्मकेन्द्रित होता है जिससे वह विकारजनित दूषित और पापमय वातावरण से दूर होता है। हिंसा, वैर-विरोध - वैमनस्य से हटकर उसकी निष्ठा अहिंसा, विश्वमैत्री और समत्व भाव समाश्रित होती है। यही कारण है कि आज भारतवर्ष में तथा अन्यत्र ध्यानयोग के अनेक प्रयोग चल रहे हैं । विकारग्रस्त जगत् विशाल है । उसकी तुलना में ये प्रयत्न काफी छोटे हैं किन्तु जिस प्रकार एक छोटी चिनगारी विराट् अग्निज्वाला का रूप ले लेती है, उसी प्रकार हम क्यों न आशा करें कि ज्यों-ज्यों अध्यात्म, दर्शन, ध्यान साधना आदि आगे बढ़ते जायेंगे नयी मानसिकता का अभ्युदय होगा। एक दिन मानवता को इसी का आश्रय लेना होगा, अन्यथा उसके अस्तित्व को बचा लेना बहुत कठिन है । यह हर्ष का विषय है कि अध्यात्म भाव के परिपोषक ध्यानयोग पर अध्ययनमनन, अनुसंधान के अनेकानेक प्रयोग चल रहे हैं । यदि प्रयोगों के साथ विशुद्ध तत्त्वदर्शन जुड़ा रहे तो वे अत्यन्त सशक्त और शाश्वत बन सकते हैं । इसी कारण यह सर्वथा वांछनीय है कि ध्यानयोग पर अधिक-से-अधिक गवेषणा हो । क्योंकि वह जीवन का एक ऐसा अंग है, जिसको अपनाने से मानव विकारमुक्त होकर सहज ही आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। जैन एवं जैनेतर सिद्धान्तों और विधिक्रमों का विवेचन करते हुए ध्यानयोग की ऐतिहासिक विकास परम्परा पर मेरे द्वारा प्रस्तुत यह शोध ग्रन्थ ऐसा ही उपक्रम है जो मेरे लिए तो आत्मश्रेयस् का हेतु है ही मुझे आशा है, अध्येताओं और पाठकों के लिए भी यह आध्यात्मिक सन्मार्ग का प्रदर्शक बनेगा । क्रियोद्धार से पूर्व ज्ञानोद्धार आवश्यक होता है, जब व्यक्ति के मन में अग्राह्य का त्याग और ग्राह्य के स्वीकार का भाव जागृत हो जाता है तब वह उसी पथ को स्वीकार करता है, जो शान्तिमय हो । व्यक्ति-व्यक्ति से समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है। अतएव व्यक्ति का जीवन यदि विकार-रहित हो जाय तो वह निर्विकारता का स्रोत राष्ट्रव्यापी या लोकव्यापी भी बन सकता है। श्रम प्रव्रज्या के पश्चात् मेरे जीवन ने नया मोड़ लिया। मैं एक ऐसे संसार या परिवार में आ गयी जहाँ भौतिक अभीप्साओं का स्थान आत्म जागरण की प्रेरणाओं लिया । मेरा विशेष सौभाग्य यह रहा कि गुरुवर्या महासती जी श्री उमरावकुँवर जी 'अर्चना' जैसी परम उच्च कोटि की ज्ञान-दर्शन- चारित्र-संवाहिका, साध्वीरत्न म.सा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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