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________________ का अनवरत सान्निध्य प्राप्त हुआ, जो मेरे दीक्षा - काल से लेकर अब तक मुझे प्राप्त है, उन्हीं के श्रीचरणों में बैठकर मैंने विद्याध्ययन तथा शास्त्रानुशीलन किया। उनके ध्यानयोग निष्णात जीवन को देखते हुए मैं अन्तः प्रेरित होती रही कि इस सम्बन्ध में मैं अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करूँ, अपना अध्ययन बढ़ाऊँ, फिर उसे अपनी जीवन साधना में क्रियान्विति प्रदान करूँ । यथारुचि, यथाशक्ति, यथावसर मैं अपना अध्ययन बढ़ाती रही और जैन सिद्धान्तों के साथ-साथ जैन योग, ध्यान सम्बन्धी ग्रन्थों को भी पढ़ती रही। तभी से मेरे मन में भाव था कि जब कभी अनुकूलता होगी, मैं ध्यान योग पर सूक्ष्म शोधपूर्ण कार्य करूँ गुरुवर्या का प्रिय विषय है। मेरे अध्ययन का क्रम तो चलता ही रहा, परीक्षाओं में मेरी विशेष रुचि नहीं थी किन्तु व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से मैंने जैनोलॉजी में 2001 में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की, मेरा वह पूर्ववर्ती भाव विशेष रूप से जागृत हुआ कि यदि मैं ध्यान योग सम्बन्धी विषय लेकर शोध करूँ तो कितना अच्छा हो । ज्ञान बढ़ने के साथ-साथ वह मेरे आध्यात्मिक परिष्कार और साधना के उत्कर्ष में सहायक बनेगा क्योंकि मेरे द्वारा परिगृहीत श्रामण्य का यही परम लक्ष्य है । यह प्रसन्नता क विषय है कि आज जैन विद्या के क्षेत्र में अध्ययन और शोध की बहुमुखी प्रवृत्तियाँ गतिशील हैं । जैन शिक्षार्थी और शोधार्थी तो इस ओर कार्यशील हैं ही, जैनेतर जिज्ञासु और अनुसंधित्सु भी जैन दर्शन, तत्त्वज्ञान तथा साधना की दिशा में अध्ययन एवं अनुसंधान करने में उनसे भी अधिक रुचिशील एवं क्रियाशील हैं । जैन दर्शन की वैज्ञानिक चिन्तनधारा ने आज विद्वजगत् को निश्चय ही आकृष्ट किया है और चिन्तक और मनीषी यह मानने लगे हैं कि जीवन की अनेक समस्याओं और विपन्नताओं का समाधान इस दर्शन से यथार्थ रूप में प्राप्त हो सकता है । 1 जैन ध्यान योग के अनेक पक्षों को लेकर हमारे देश के अनेक विश्वविद्यालयों में शोधकार्य हुआ है, हो रहा है, उन सबका पर्यवेक्षण करते हुए मेरी परम श्रद्धास्पदा गुरुवर्या ने मुझे विशेष रूप से संकेत किया कि जैन ध्यान योग के विकास की एक लम्बी ऐतिहासिक यात्रा है जो आगम काल से लेकर उत्तरोत्तर अभिवृद्धि पाती हुई, अद्यावधि गतिशील है । यदि उस पर विश्लेषणात्मक, तुलनात्मक, समीक्षात्मक दृष्टि अनुसंधान किया जाय तो यह आत्मोपकार और परोपकार दोनों दृष्टियों से बड़ा ही श्रेयस्कर सिद्ध हो सकता है। 1 पूज्या गुरुवर्याश्री के इस संदेश को एक आत्मजागरण का संदेश एवं निर्देश हुए मैंने इसे सहर्ष शिरोधार्य किया तथा इस सम्बन्ध में मैंने पार्श्वनाथ विद्याश्रम मानते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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