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अब तक अविच्छिन्न रूप में चला आ रहा है। उसी के ऐतिहासिक विकास क्रम का स्वरूप, इतिवृत्त प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में उपस्थापित किया गया है ।
'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते'। यह प्राचीन उक्ति है जिसका भाव यह है कि प्रयोजन के बिना मन्द या अज्ञानी व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । अतः सहसा यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विज्ञान के वर्तमान युग में आध्यात्मिक साधना या योग जैसे विषय की क्या उपयोगिता है? मानव को तो आज अत्यधिक साधन चाहिए जिससे वह सुखपूर्वक जी सके। उसके लिए उसे धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयों से क्या उपलब्ध होगा ?
इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए हमें गहराई में जाना होगा। आज विज्ञान ने मानव को विपुल मात्रा में भौतिक साधन प्राप्त करा दिये हैं । जो कार्य दिनों और महिनों में होते थे वे वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा क्षणों में हो जाते हैं । सुख-सुविधाओं के अनेक साधन आज विज्ञान ने जुटा दिये हैं। सबको वे प्राप्त नहीं हैं, यह तो सामाजिक अव्यवस्था का परिणाम है। किन्तु आज भौतिक दृष्टि से कहीं कुछ भी कमी नहीं है। यह सब होते हुए भी आज का मानव अधिकाधिक तनावग्रस्त है । अब से पूर्व जब भौतिक साधन अल्प मात्रा में थे तब के मानव और आज के मानव की तुलना की जाय तो स्पष्ट रूप में सिद्ध होगा कि विज्ञान द्वारा प्रदत्त भौतिक साधन के बावजूद आज का मानव अत्यन्त दुःखित और उद्विग्न है । बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में प्रचुरतम साधनों के मध्य रहता हुआ भी न वह सुख से सो पा रहा है, न वह निश्चिन्तता पूर्वक रह ही रहा है। बहुत कुछ पा लेने पर उसकी तृष्णा आगे से आगे बढ़ती जा रही है। इसी पीड़ा और वेदना के साथ वह सब कुछ छोड़कर चला जाता है।
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दूसरी ओर एक और दृश्य है जहाँ हिंसा, उपद्रव, आतंक, वैर भाव का नग्न नृत्य दिखलाई दे रहा है। नैतिक मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं । पारस्परिक सौहार्द, आत्मीयता मिटती जा रही है। हिंसा की दानवीय शक्ति द्वारा मानव सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है । आज के वैज्ञानिक युग की यह कितनी बड़ी विडम्बना है । मानव में इतना छल और कपट व्याप्त हो गया है कि वह मैत्री की बात करता है किन्तु उसके भीतर द्वेष की आग सुलगती रहती है। यह केवल साधारण व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्ष तक इस विकार से ग्रस्त हैं ।
विज्ञान इस विकराल भीषण समस्या का कोई समाधान न दे सका है, न दे पायेगा । इसका समाधान धर्म और अध्यात्म से ही प्राप्त हो सकता है । आज इसका स्थान गौण होता जा रहा है। इसलिए ये विकार बढ़ रहे हैं। हिंसा द्वारा समस्या को न
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