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________________ स्वकथ्य प्रस्तुत शोधग्रन्थ मानव जीवन के उस महत्त्वपूर्ण पक्ष का संस्पर्श करता है जो मांसल या भौतिक जीवन से सर्वथा पृथक् अन्तर्जीवन से सम्बद्ध है। बहिर्जीवन तो स्थूल है, भौतिक या पौद्गलिक है। इसलिए वह सभी द्वारा चरम चक्षुओं से देखा जा सकता है, किन्तु आभ्यन्तरिक जीवन के निरीक्षण-परीक्षण के लिए प्रज्ञात्मक चक्षुओं की आवश्यकता है। इन चक्षुओं के खुले बिना जीवन के अन्तरतम में दृष्टि जा नहीं सकती। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि इसमें केवल बहिर्दर्शन को स्थान नहीं है, अन्तर्दर्शन की उसमें महत्ता है। इसलिए वहाँ ऐहिक के साथ-साथ पारलौकिक जीवन भी अपना महत्त्व रखता है, जो केवल भौतिक जीवन में अत्यन्त आसक्त रहता हुआ पारलौकिक या आध्यात्मिक जीवन से असंस्पृष्ट रहता है वह अधूरा है, अपूर्ण है। भारतीय संस्कृति में भी जैन संस्कृति का चिन्तन और गहराई में गया। “अहिंसा विन्नाणं' जैसी आगमिक उक्तियाँ इसके प्रमाण हैं। उन्होंने केवल भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान नहीं माना अहिंसा जैसे आध्यात्मिक विषयों के गहन चिन्तन-मनन और अनुशीलन को भी विज्ञान की संज्ञा दी। क्योंकि यह आध्यात्मिक विज्ञान जीवन को उस श्रेयस्कर पथ के साथ जोड़ देता है जो उसे उसकी अन्तिम मंजिल तक पहुँचा . सकता है। इसे साधने के लिए भारतीय मनीषियों ने विशेषत: जैन मनीषियों ने एक साधना का मार्ग दिया जिस पर चलता हआ व्यक्ति अपने ऐहिक जीवन को सम्मार्जित करता हआ आध्यात्मिक लक्ष्य को साध सके । योग उस साधना का ही एक रूप है जो विविध परम्पराओं में विविध रूपों में विकसित हुई। जैन धर्म में व्रत, गुणस्थान, तपश्चरण, प्रतिमा-वहन इत्यादि के रूप में उसका विकास हुआ। वहीं समन्वयवादी आचार्यों द्वारा जैन योग के रूप में संप्रतिष्ठित हुआ। उनके अनुसार योग वह माध्यम है, जो योगों का मानसिक, वाचिक, कायिक, प्रवृत्तियों का परिष्कार, परिमार्जन और अन्तत: परिशोधन कर साधक को परम निर्मल शुद्ध परमात्म स्वरूप तक पहुँचा दे। जहाँ मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों का कोई अस्तित्व ही न रहे। उसी को मुक्ति, मोक्ष या परिनिर्वाण शब्दों द्वारा अभिहित किया जाता है। वह परम आनन्दमयी अवस्था है जिसके समक्ष सभी भौतिक सुख नगण्य हो जाते हैं। ध्यान उस आराधना का मुख्य साधन या माध्यम है जिसका स्रोत सर्वज्ञ प्ररूपित आगम वाङ्मय से लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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