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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना मऊण जोगिनाहं सुजोगसंदसंगं महावीरं । वोच्छामि जोगलेस जोगज्झयणाणुसारेण ॥ योगियों के नाथ, स्वामी, आराध्य, उत्तम आध्यात्मिक योग के संदर्शक, भगवान महावीर को प्रणमन, नमन कर मैं योगशास्त्रों के अध्ययन के अनुरूप संक्षेप में योग को विवक्षित व्याख्यात करूंगा । इस गाथा में योग शब्द का चार स्थानों पर प्रयोग 'हुआ है। भगवान महावीर को योगियों के नाथ के रूप में यहाँ अभिहित किया गया है । साथ-ही-साथ उनको उत्तम योग का मार्गदर्शक बताया है। लेखक ने योगविषयक आगम-शास्त्रग्रन्थों के अध्ययन के नवनीत के रूप में संक्षेप में योग का विवेचन करने का भाव प्रकट किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि कर्त्ता आचार्य को योग शब्द कितना प्रिय एवं रुचिकर रहा । उन्होंने सबसे पहले निश्चययोग के रूप में योग का विश्लेषण करते हुए लिखा है - नैश्चयिक दृष्टि से योग के सद्ज्ञान आदि का सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र इन तीनों का आत्मा के साथ जुड़ना, सम्बद्ध होना योग है। योग के पारगामी महान् साधकों ने ऐसा बतलाया है। उसकी योगसंज्ञा इसलिए है कि वह आत्मा का मोक्ष के साथ योजन करता है । 41 - खण्ड : पंचम आगे उन्होंने व्यवहार योग की चर्चा करते हुए लिखा है कि कार्य का यदि कारण में उपचार किया जाय तो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के कारणों का आत्मा के साथ जो संबंध घटित होता है, उसे भी योग कहा जाता है। तदनुसार धर्मशास्त्र - प्रतिपादित विधि के अनुसार गुरुजन के प्रति विनयभाव, उनकी सेवा, शुश्रूषा, परिचर्या, उनके सान्निध्य में रहते हुए उनसे तत्त्व - श्रवण की उत्कंठा, आत्मसामर्थ्य के अनुसार शास्त्रोक्त विधि - निषेध का अनुसरण करते हुए सदाचरण का अभ्यास, इसे व्यवहारयोग कहा गया है । यह योग का प्रारंभ है। इसमें उद्यत रहता हुआ साधक कालक्रम से उस ओर आगे बढ़ता है, उत्तरोत्तर बुद्धि - प्रकर्ष प्राप्त करता जाता है। यथा सम्यक्ज्ञान दर्शन - चारित्रमूलक निश्चय को प्राप्त कर लेता है । जैसे एक व्यक्ति अपने इष्ट, लक्षित, अभीप्सित नगर की ओर अपनी शक्ति के अनुरूप जाता है तब उसे इष्टपूर्व प्रतीक कहा जाता है। उसी प्रकार जो साधक ज्ञान आदि 41. योगशतक, श्लोक. 2, पृ. 233 Jain Education International +-- 28 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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