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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
परिचालित होने लगता है, वैसे ही जिनका योगचक्र किसी अन्य द्वारा संप्रेरित, संस्पृश्य होकर गतिशील होता है, तदनुसार जो साधक योग में प्रवृत्त होते हैं उन्हें प्रवृत्तचक्रयोगी कहा जाता है। ऐसे योगी इच्छायम, प्रवृत्तियम को साध चुकते हैं। स्थिरयम एवं सिद्धियम को सिद्ध करने की तीव्र उत्कंठा लिये रहते हैं। उस दिशा में प्रयत्नशील रहते हैं। उनमें शुश्रूषा-सत्तत्वों को सुनने की आन्तरिक तीव्र आकांक्षा रहती है। वे मनन-परिशीलन पूर्वक सावधानता पूर्वक तत्त्वश्रवण करते हैं। श्रवण किये हए को गृहीत करते हैं, ग्रहण किये हुए की अवधारणा करते हैं, अवधारण करने पर विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है, बोध उत्पन्न होता है। चिन्तन, विमर्श, शंका-समाधान करते हैं। ऐसा कर वे इसका निराकरण करते हैं। तत्त्वनिर्धारण पूर्वक अन्त:स्थित अन्तरात्मभाव का अनुभव करते हैं। ये प्रवृत्तचक्रयोगी अवंचक त्रय में से पहला योगावञ्चक प्राप्त कर चुकते हैं। उसका यह प्रभाव होता है कि उन्हें दूसरे दो क्रियावंचक व फलावञ्चक भी प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे योगी ही योग-प्रयोग के अधिकारी हैं। योग आध्यात्मिक विद्या या विज्ञान है, इसके अधिकारी मात्र संक्षिप्त प्रयोग द्वारा भी इससे अपरिमित लाभ उठा सकते हैं किन्तु अनधिकारियों को तो हानि ही होती है।40 निष्पन्नयोगी वे हैं, जो योगसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। ‘योगदृष्टिसमुच्चय' में यद्यपि केवल दो सौ अट्ठाइस श्लोक हैं, किन्तु उनमें योग से संबंधित अनेकानेक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों का मार्मिक विश्लेषण हुआ है, जो योग आराधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। शतक :
'योगशतक' आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा एक सौ एक प्राकृत गाथाओं में रचित महत्त्वपूर्ण कृति है। भाषा की दृष्टि से इसमें महाराष्ट्री प्राकृत का संदर्भ-प्राञ्जल रूप प्राप्त है। आचार्य हरिभद्र जिस प्रकार संस्कृत के एक प्रौढ़ सिद्धहस्त लेखक थे उसी प्रकार प्राकृत में भी उनकी लेखनी बड़े ही चामत्कारिक रूप में गतिशील रही। ‘समराइच्चकहा' उनकी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कथाकृति है, जिसका प्राकृत वाङ्मय में अपना अद्वितीय स्थान है। लेखक ने 'योगशतक' का प्रारम्भ भगवान महावीर के नमस्कार रूप मंगलाचरण से किया है। वह गाथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है
40. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक - 212-213, पृ. 69-70
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