SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना द्वारा हुए पिछले योगांग अध्यात्मोन्मुख हों। ये दृष्टियाँ योगांगों में अध्यात्म भाव का संचार करती हैं जिससे ये शरीर के अंगोपांग तथा श्वास- प्रवास के विशोधन में ही न रह कर आत्मविशोधन के साथ जुड़ सकें । दृष्टियों की इसी विशेषता के कारण इन्हें योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्रसूरि का एक विलक्षण अवदान कहा जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगदृष्टिसमुच्चय' में योगियों के भेदों की विशेष रूप से चर्चा की है। उन्होंने गोत्रयोग, कुलयोग, प्रवृत्त - चक्र योग तथा निष्पन्नयोग के आधार पर चार प्रकार के योगियों का उल्लेख किया है। उन्होंने यह बतलाया है कि कुलयोगी और प्रवृत्तचक्रयोगी ही इस ग्रन्थ के अधिकारी हैं। सभी योगी इसके अधिकारी नहीं हैं । जो योगियों के कुल में उत्पन्न हुए हैं जिन्हें जन्म से ही योग प्राप्त हैं, जो प्रकृति से ही योग का अनुसरण करते हैं वे कुलयोगी कहे जाते हैं । कुलयोगियों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे सर्वत्र अद्वेषी होते हैं । गुरुजन, देव तथा ज्ञानी पुरुष उन्हें सहज ही प्रिय होते हैं। वे उनका आदर करते हैं। वे दयावान विनयशील, प्रबुद्ध तथा संयतेन्द्रिय होते हैं। 39 कुलयोगी का तात्पर्य यह है कि जो योगी अपने पूर्वजन्मों में योग की आराधना करते-करते दिवंगत हो जाते हैं, उस जन्म में अपनी साधना को पूर्णरूपेण निष्पन्न नहीं कर पाते, वे अपने अग्रिम जन्म में पूर्वजन्म के संस्कार लिये हुए होते हैं। इसलिए उनको जन्म के साथ ही योग प्राप्त होता है । वे स्वयं प्रेरित होते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि कुलयोगी आनुवंशी नहीं होते। योगियों का कोई कुल नहीं होता। यहाँ कुल शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है। कुल शब्द के साथ उत्तमता या प्रशस्तता का भाव जुड़ा हुआ है। इसलिए कुलवधू, कुलपुत्र इत्यादि से उत्तम वधू, उत्तम पुत्र का भाव ध्वनित होता है। इसलिए योगी शब्द के साथ यहाँ कुल शब्द का प्रयोग हुआ है। आर्यक्षेत्र के अन्तर्गत भारतभूमि में उत्पन्न होने वाले भूमिभव्य कहे जाते हैं । वे गोत्रयोगी की संज्ञा से अभिहित हुए हैं अर्थात् इस भूमि में योगसाधना के अनुरूप उपयुक्त साधनसामग्री के निमित्त प्राप्त होते हैं । किन्तु केवल भूमि की भव्यता से ही योगसाधना निष्पन्न नहीं होती। वैसे लोग यदि साधना में समुद्यत होते हैं तो उसमें आगे बढ़ सकते हैं क्योंकि क्षेत्र के कारण उनमें तदनुरूप पात्रता होती है। खण्ड : पंचम चक्र के किसी एक भाग पर डण्डे को लगाकर हिला देने पर वह सारा चक्र 208-210, पृ. 67 39. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक Jain Education International - 26 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy