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खण्ड : पंचम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
__ जैसा कि यथाप्रसंग इंगित किया गया है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने आठों दृष्टियों के सिद्ध होते जाने के साथ-साथ क्रमश: श्री भगवद्दत्त निरूपित गुणों के निष्पन्न होने और श्री भदन्त-भास्कर द्वारा सूचित दोषों के क्षीण होने का विशेष रूप से उल्लेख किया है।
उपर्युक्त रूप में आठ दृष्टियों के माध्यम से योगाभ्यासी पुरुष पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से अपनी योगसाधना प्रारम्भ करता है। पहली चार दृष्टियाँ क्रमश: आत्मसम्मान की हैं। उनमें वह सत् उद्यम और अध्यवसाय पूर्वक साधनारत रहता है। परिणामस्वरूप उसे सम्यक्बोध रूप दिव्य ज्योति का लाभ होता है। ये चार दृष्टियाँ विकालवर्जन पूर्वक आगे बढ़ने का उपक्रम लिये रहती हैं। आगे की चार दृष्टियाँ आत्मा के विशुद्धिमूलक उपक्रम के साथ जुड़ी हुई हैं। परादृष्टि में साधक का उद्यम साफल्य पा लेता है। निर्मल, निष्कलंक, सौम्य, शीतल चन्द्र की ज्यों उसकी आत्मा निर्मलता प्राप्त कर लेती है।
यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दृष्टिविशेष के प्राप्त होते ही योग के यम आदि अंग कैसे सिद्ध हो जाते हैं ? दृष्टि तो एक दर्शन है, वीक्षण है। यम, नियम, आसन आदि तो सब अभ्यासापेक्षी हैं। यहाँ यह बात गहराई से समझने योग्य है कि ग्रन्थकार का आशय दृष्टिप्राप्ति के बाद वैसी उत्तम पवित्र मनोदशा के उत्पन्न होने से है जिसमें योगांगों की साध्यता निष्पन्न हो सकती है बशर्ते साधक उनके अभ्यास में भी उद्यत दृष्टि हो। उद्यम, अभ्यास या प्रयत्न की पृष्ठभूमि है। जिस प्रकार नींव के बिना कोई विशाल अट्टालिका खड़ी नहीं हो सकती, उसी प्रकार विशुद्ध दृष्टि के बिना योग भी यथार्थ रूप में फलित नहीं हो सकता। वहाँ आसन, प्राणायाम आदि दैहिक दृष्टि से तो क्रियान्वित हो जाते हैं किन्तु वे व्यायाम मात्र रह जाते हैं। आत्मश्रेयस्कर योग को समुन्नत करने में उनसे बल नहीं मिलता। वे सर्कस में दिखाये जाने वाले चमत्कारों से बढ़कर नहीं होते। योगांग सर्कस के खेल नहीं हैं। वहाँ आसनसिद्धि से प्राप्त, शारीरिक सौविध्य आनुकूल्य आत्मोपकारी साधना में सहकारी होते हैं। श्वास-प्रश्वास का गतिच्छेद प्राणवायु को आत्मा की ऊर्ध्वगामिता में सहायक बनाता है। यदि ऐसा न हो तो प्रत्याहार भी सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि वहाँ इन्द्रियों को, मन को सांसारिक विषयों से खींचकर, समेटकर चित्त पर लगाना होता है और उसके आगे धारणा, ध्यान और समाधि तीनों अंग तभी सिद्ध हो सकते हैं जब साधक wmmmmmmmmmmmmmm 25 mmmmmmmmmmmmmmm
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