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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों में ध्यान-साधना खण्ड : पंचम योगी को मुख्य साधक की ऊर्ध्वगामिता के अनन्य हेतु 'द्वितीय अपूर्वकरण' की उपलब्धि होती है और धर्मसंन्यासयोग निष्पन्न होता है जो पहले चर्चित हुआ है। उसके फलस्वरूप योगी को उत्कर्षणशील सदैव शाश्वत निर्मल रहने वाला पतनरहित केवलज्ञान अधिगत होता है। जीव अपनी उज्ज्वल, स्वच्छ, शुद्ध भावात्मक प्रवृत्ति से चन्द्रज्योत्स्ना के सदृश है तथा ज्ञानावरण आदि कार्मिक आवरण मेघ के सदृश शुद्ध स्वरूपमय आत्मा को आवृत किये रहते हैं। जब आत्मा के मूलगुणों का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्म योगरूपी वायु के आघात से हट जाते हैं, मिट जाते हैं, क्षीण हो जाते हैं तब आध्यात्मिक लक्ष्मी से युक्त साधक केवलीपद प्राप्त कर लेता है। उसके अज्ञान, निद्रा आदि 18 दोष विलीन हो जाते हैं। वह सर्वज्ञ हो जाता है। समस्त लब्धियों, अतिशयों से वह परिपूर्ण हो जाता है। वह अपना परम साध्य साध लेता है और योग के अन्तिम फल शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है। वह परम पुरुष अयोगद्वास - मानसिक, वाचिक कायिक, योगों-प्रवृत्तियों के अभाव द्वारा योग की सर्वोत्तम दशा अधिगत कर अविलम्ब संसार रूप व्याधि को क्षय कर डालता है, परम निर्वाण प्राप्त कर लेता है।38 । योगदृष्टियों के साथ योगगुण स्वीकार एवंदोष-विवर्जन का समन्वय : ____ आचार्य हरिभद्र से पूर्ववर्ती योग- मनीषी भगवद्दत्त ने अद्वेष-द्वेषशून्यता, जिज्ञासा, योगतत्त्व को गहराई से जानने की अभीप्सा, शुश्रूषा, योगविषयक सिद्धान्तों को सुनने की इच्छा, शुश्रूषा का क्रियान्वयन, श्रवण कर योगतत्त्वों का स्वायत्तीकरण, मीमांसा-सूक्ष्म समीक्षा, प्रतिपत्ति-पर्यवेक्षित बोध की स्वीकृति, प्रवृत्ति सहजावस्था की परिपूर्णता के रूप में आठ गुणों का निरूपण किया है जो क्रमश: योगसाधना के भावात्मक विकास के द्योतक हैं। ___ योगवेत्ता भदन्तभास्कर ने खेद-योगसाधना में परिश्रान्ति का अनुभव, उद्वेग-मन में उच्चाट का उद्भव, क्षेप-मन का योगसाधना से हटना, उत्थान-साधना के केन्द्र से विचलित होना, भ्रान्ति-भ्रमजनित विपथ-गामी भाव, अन्यमुद-योगेतर भाव में प्रमुदित या प्रसन्न होना, रुक्-आन्तरिक अस्वस्थता, भावों की शिथिलता, आसंगआसक्त भाव के रूप में आठ दोषों का प्रतिपादन किया है, जो उन्नतिशील योगी के साधनाक्रम के साथ-साथ क्षीण होते जाते हैं। 38. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक - 180-186, पृ. 56-59 ~~~~~~~~~~~mmmm 24 ~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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