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________________ खण्ड : पंचम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम या निर्बीज के रूप में दो प्रकार की है। शुक्लध्यान के विवेचन के अन्तर्गत यथाप्रसंग इस सम्बन्ध में चर्चा की गयी है। यह आत्मा की परम शान्त, निर्मल, निर्दोष, शुद्ध परमानंदमयी दशा है। परादष्टि में समाधि सिद्ध हो जाने के साथ-साथ आत्मा आसंग से सर्वथा विवर्जित हो जाती है। यहाँ आसंग का अभिप्राय है कि साधक का लगाव किसी एक ही योगक्रिया के साथ आसक्ति लिये नहीं रहता। उसमें एक मात्र वैसी ही प्रवृत्ति या आचरण सहज रूप में विद्यमान रहता है जिससे विशुद्ध परमतत्त्व का, परमात्मभाव का अनुभव हो। इसमें चित्त उत्तीर्णाश्रय हो जाता है। उत्तीर्ण का अर्थ ऊँचा उठ जाना है। वह सभी आश्रयों से चैतसिक प्रवृत्तियों से, वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। वहाँ योगी निराचारपद युक्त होता है। वहाँ किसी आचारविशेष के अनुसरण का प्रयोजन नहीं रहता। वह अतिचार विवर्जित होता है। किसी प्रकार का दोष उसके साधनामूलक उपक्रम में व्याप्त नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी पहुँचने की मंजिल प्राप्त कर चुका हो उसे आगे बढ़ने की कभी आवश्यकता नहीं रहती। वैसी स्थिति परादृष्टि में स्थित योगी की होती है। वहाँ सब सहज रूप में आत्मानुभावित होता है, आत्मानुसरित होता है। क्योंकि यह अन्तरात्माभाव से परमात्मभाव तक पहुँचने की स्थिति होती है।37 उपर्युक्त तत्त्व को ग्रन्थकार ने रत्नशिक्षा के उदाहरण से स्पष्ट किया है। रत्न आदि के विषय में शिक्षार्थी जब शिक्षा लेता है तब उसकी जो दृष्टि होती है, शिक्षा ले चुकने के अनन्तर अर्थात् रत्न-परीक्षण की विद्या या कला में निपुण हो जाने पर रत्न आदि के वियोजन में, क्रय-विक्रय आदि प्रयोग में उसकी दृष्टि पहले से सर्वथा भिन्न होती है। क्योंकि उन दोनों दृष्टियों में अन्तर है। शिक्षाकाल में तो वह जिज्ञासु विद्यार्थी के रूप में होता है। अपना ज्ञान विकसित करने की भावना उसमें होती है। किन्तु क्रय-विक्रय के समय वह उस स्थिति से उन्नत होता है। वहाँ वह अपने उपार्जित ज्ञान के आधार पर निपुणता और कुशलता का प्रयोग करता है। __ परादष्टि में योगी वैसी ही निष्णात अवस्था में होता है। वह उन सब सीमाओं को पार कर चुकता है जो अभ्यास दशा में उपादेय होती हैं। यह वह स्थिति है जहाँ 37. योगदृष्टि समुच्चय श्लोक - 178-179, पृ. 55-56 23 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001711
Book TitleJain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUditprabhashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, Religion, & History
File Size9 MB
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